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शिक्षण : तैयारी से कक्षा तक


परिचय- एक सम्पूर्ण शिक्षण चक्र को ध्यान से देखा जाए तो इसके तीन हिस्से नज़र आते हैं। पहले हिस्से को शिक्षण कार्य से पूर्व की तैयारी, दूसरे हिस्से को शिक्षण कार्य (प्रक्रिया) और तीसरे हिस्से को ‘चिन्तनशील सोच’ के रूप में देख सकते हैं। (यहाँ आकलन को शिक्षण प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा गया है) शिक्षण कार्य की पूर्व तैयारी को सामान्य ढंग से देखने से तो सिर्फ यह दिखाई पड़ता है कि विषयगत पाठ, जिसको पढ़ाना है, को एक बार ध्यान से पढ़ लिया जाए। ज़्यादातर शिक्षक ऐसा ही करते हैं जबकि कुछ शिक्षक तो इसे भी ज़रूरी नहीं समझते। यदि हम शिक्षण को एक कौशल के रूप में देखें तो इसकी ‘तैयारी और इसका अभ्यास’ महत्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ अभ्यास से आशय है शिक्षण कार्य को करते हुए उसमें निखार लाना। ऐसा सम्भव नहीं है कि पहले इसका अभ्यास कर लिया जाए फिर बाद में शिक्षण कार्य को प्रारम्भ करें। जिस तरह तैरना सीखने के लिए तैरना अनिवार्य शर्त है उसी तरह शिक्षण में पारंगत होने की अनिवार्य शर्त है शिक्षण कार्य में स्वयं को लिप्त करना और ऐसा करके ही शिक्षण कार्य में पारंगतता हासिल की जा सकती है। बहरहाल किसी भी विषय में शिक्षण कार्य की तैयारी तीन तरह के प्रश्न पूछते हुए की जा सकती है—

1. शिक्षा के क्या उद्देश्य हैं? जो मूलतः इससे निर्धारित होते हैं कि किस प्रकार का समाज हमें चाहिए?

2. जिस विषय का शिक्षण कार्य किया जाना है उस विषय को पढ़ाने के क्या उद्देश्य हैं? उस विषय के माध्यम से बच्चों में किन कौशलों व क्षमताओं का विकास किया जाना है? (इसे सहूलियत के लिए ‘विषयगत उद्देश्य’ कह सकते हैं।)

3. विषयगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस विषयवस्तु को माध्यम बनाया गया है? किस विषय वस्तु पर समझ बनाने की कोशिश की गई है? (इसे सहूलियत के लिए पाठगत उद्देश्य कह सकते हैं।)

शिक्षण की पूर्व तैयारी- सबसे पहले शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षण कार्य की पूर्व तैयारी के रूप में देखते हैं। इसके लिए विद्यालय और समाज के मध्य सम्बन्ध एवं शिक्षा के संवैधानिक मूल्यों पर विचार करना महत्वपूर्ण हो सकता है। हम किस प्रकार का समाज स्थापित/विकसित करना चाहते हैं? इस प्रकार के शैक्षिक लक्ष्यों में लगातार लम्बे समय तक कार्य करने के बाद ही कह सकते हैं कि हम उस शैक्षिक लक्ष्य तक पहुँच पाए या नहीं। उदाहरण के लिए यदि हमारा शैक्षिक लक्ष्य ‘न्याय पर आधारित समाज की स्थापना’ करना है तो हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि न्याय से हमारा आशय क्या है। क्या जाति, धर्म, लिंग में भेद किए बिना सबके अधिकारों की रक्षा करना न्याय है? क्या ऐसे समाज को देखना जहाँ शान्ति, डर एवं भय से नहीं बल्कि एक–दूसरे के अधिकारों का सम्मान करते हुए स्थापित हो, न्याय है? ऐसे कई तरीकों से हमें न्याय को परिभाषित करना होगा।

उसके बाद हमें इस पर विचार करना होगा कि जितनी देर कक्षा में बच्चों के साथ अन्तःक्रिया होगी उसमें शिक्षक का व्यवहार कैसा होगा, उसे किन–किन बातों को ध्यान रखना होगा। ऐसे अन्य कई पहलुओं पर भी विचार करना होगा। जैसे शिक्षक और बच्चों के मध्य या बच्चों और बच्चों के मध्य की अन्तःक्रिया में कहीं जाति, धर्म, लिंग आधारित भेदभावपूर्ण व्यवहार (अनजाने में भी) तो नहीं हो रहा है। आमतौर पर एक शिक्षक पाठ्यक्रम के सभी घटकों को ध्यान में नहीं रखता। किसी विषयवस्तु पर कार्य करते हुए वह शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों को अनजाने में ही सही, भूल जाता है और उन्हें कक्षा में स्थान नहीं दे पाता। जैसे जब कोई शिक्षक ‘नक्शा सिखा रहा होता है तो नक़्शे के ‘पठन कौशल’ को विकसित करना मुख्य उद्देश्य हो जाता है जबकि शिक्षण के हर क्षण हमें शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों (जिसके लिए शिक्षा तंत्र विकसित हुआ है), जो लम्बे समय अन्तराल के बाद पूरे होने होते हैं, को भी अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। उदाहरण के लिए यहाँ यह देखा जाना महत्वपूर्ण हो जाता है कि बच्चे नक़्शे के ‘पठन कौशल’ का उपयोग एक–दूसरे से सहयोगात्मक ढंग से सीखने में कर रहे हैं या नहीं। यही ‘सहयोग की भावना’ वयस्क समाज को वांछित समाज की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। इस प्रकार शिक्षण की पहली तैयारी में शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए ‘कैसे कार्य किया जाना होगा’ पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर लेना चाहिए।

विषयगत उद्देश्य- अभी हमने शिक्षण की तैयारी के लिए उठाए गए तीन प्रश्नों में से पहले प्रश्न ‘शिक्षा के क्या उद्देश्य हैं’ पर कुछ उदाहरणों के साथ विचार करने का प्रयास किया है। अब हम इसके दूसरे प्रश्न ‘जिस विषय का शिक्षण कार्य किया जाना है उसकी प्रकृति क्या है एवं उस विषय को पढ़ाने के क्या उद्देश्य हैं? इस विषय के माध्यम से बच्चों में किन कौशलों व क्षमताओं का विकास किया जाना है?’ (जिसे हमने सहूलियत के लिए विषयगत उद्देश्य का नाम दिया है), पर विचार करते हैं कि आखिर विषयगत उद्देश्य के तहत शिक्षण की क्या तैयारी की जा सकती है। जैसे गणित पढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है बच्चों में तार्किक क्षमता का विकास करना, अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को गणितीय ढंग से सुलझा पाना आदि। भाषा पढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है कि बच्चे स्वतंत्र रूप से विचार कर सकें, अपनी बातों को निर्भीकता से दूसरों के समक्ष रख सकें आदि। इसी तरह सामाजिक विज्ञान को पढ़ाने का उद्देश्य हो सकता है कि बच्चे समाज में घट रही विभिन्न घटनाओं के मध्य सम्बन्धों को देख सकें। विज्ञान का उद्देश्य हो सकता है कि बच्चों में वैज्ञानिक सोच पैदा हो। इन्हीं सब उद्देश्यों के आधार पर कक्षागत अभ्यास का नियोजन करना शिक्षण का महत्वपूर्ण पहलू हो सकता है, जिसके आधार पर कक्षा में की जाने वाली गतिविधियों को दिशा प्रदान की जा सकती है, शिक्षण सहायक सामग्री का विवेक सम्मत उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है। सामाजिक विज्ञान में इतिहास, राजनीतिशास्त्र एवं भूगोल जैसे विषयों को समाहित किया जाता है। आगे अपनी बात को बढ़ाने के लिए भूगोल विषय के अनेक उद्देश्यों में से एक बृहद उद्देश्य ‘विभिन्न घटनाओं के मध्य आपसी सम्बन्धों को समझना’ को एक उदाहरण के रूप में ले सकते हैं— जैसे किसी स्थान की धरातलीय संरचना का वहाँ होने वाली वर्षा की मात्रा के साथ क्या सम्बन्ध होता है और वर्षा का वहाँ होने वाली फसलों के साथ क्या सम्बन्ध होगा अर्थात वहाँ किस तरह की फसलें उगाई जाती हैं? आदि। इसी तरह कुछ कौशलों का विकास करना भी इस विषय का एक महत्वपूर्ण विषयगत उद्देश्य है। उदाहरण के लिए ‘नक्शा पठन’ का कौशल। यदि हमारा भूगोल पढ़ाने का ‘विषयगत’ उद्देश्य बच्चों में नक़्शे का पठन कौशल विकसित करना है तो हमें हमारी कक्षा संचालन की तैयारी में विभिन्न देशों (स्तरानुसार) के नक़्शों का मुख्य शिक्षण सामग्री के रूप में चयन करना होगा। यह देखना होगा कि बच्चों के लिए लिखी गई पाठ्यपुस्तकों में मुद्रित नक़्शे का उपयोग किस तरह से हो। नक़्शे पढ़ने के सभी आवश्यक घटकों (दिशा, पैमाने, संकेत चिह्न, रंग आदि) पर बच्चों में समझ विकसित करने सम्बन्धी गतिविधियों का नियोजन करना होगा। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस पठन कौशल को विकसित करने के लिए बच्चों को व्यक्तिगत कार्य करने का अवसर, जोड़ी में कार्य करने का अवसर एवं समूह में कार्य करने का अवसर कहाँ–कहाँ व किस तरह देना होगा/दिया जा सकता है। इस प्रकार विषयगत उद्देश्य यह तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं कि कक्षा संचालन की तैयारी किस तरह की जानी चाहिए।

पाठगत उद्देश्य – विषयवस्तु- अब हम शिक्षण की तैयारी के लिए उठाए गए तीन प्रश्नों में से तीसरे एवं अन्तिम प्रश्न ‘विषयगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस विषय वस्तु को माध्यम बनाया गया है? किस विषय वस्तु पर समझ बनाने की कोशिश की गई है?’ पर विचार करते हैं। जैसा कि प्रश्न में ही कहा गया है कि विषयगत उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस ‘विषय वस्तु’ को माध्यम बनाया गया है? यहाँ हम भूगोल विषय में ‘अफ्रीका महाद्वीप’ को पाठगत विषयवस्तु (माध्यम) के रूप में लेते हुए अपनी बात को आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं। इस विषय वस्तु में निश्चित ही विषयगत उद्देश्य ‘नक़्शे का पठन कौशल’ तो है ही पर साथ में यह समझ भी विकसित करना अवश्यम्भावी हो जाता है कि बच्चे अफ्रीका महाद्वीप की भौतिक संरचना को इस आशय के साथ समझें कि यह वहाँ की जलवायु, वर्षा, जनजीवन आदि को किस तरह प्रभावित करती है। इस तरह यह सभी इसके पाठगत उद्देश्य कहे जाएँगे। अतः इन पाठगत उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कक्षा की गतिविधियों को दिशा देना होगा। जैसे बच्चों को यह अवसर देना कि सभी बच्चे व्यक्तिगत कार्य के रूप में नक़्शे के पठन कौशल का उपयोग करते हुए अफ्रीका महाद्वीप के भौतिक भागों का वर्णन करें, इसे जोड़ी में या छोटे–छोटे समूहों में कार्य कराने की लिए भी गतिविधियों का नियोजन किया जा सकता है। यहाँ शिक्षक की स्वायत्तता है कि विषय वस्तु पर कार्य करने की तैयारी वह किस प्रकार करता है।

शिक्षण प्रक्रिया- इस लेख के प्रारम्भ में ही हमने ‘शिक्षण चक्र’ शब्द का उपयोग किया है और इस चक्र के पहले हिस्से के रूप में ‘शिक्षण कार्य की पूर्व तैयारी’ पर हम काफ़ी बातचीत कर चुके हैं। अब हम इस चक्र के दूसरे हिस्से ‘शिक्षण कार्य (प्रक्रिया)’ पर बात करते हैं, अर्थात अब हम उपरोक्त तैयारी के बाद कक्षा में शिक्षण कार्य के लिए प्रवेश करते हैं। जब हम कक्षा में प्रवेश करते हैं तो हमें सबसे पहले जिस पर विचार करना श्रेयस्कर हो सकता है वह है— ‘कक्षा का वातावरण’। यह सर्वमान्य है कि बच्चों का ‘अच्छी तरह सीखना’ एक कक्षा के अच्छे वातावरण में सम्भव होता है। यहाँ अच्छे वातावरण से आशय एक ऐसे स्थल से है जहाँ बच्चों की देखभाल होती हो वह भी लिंग– जाति– धर्म– सामाजिक– आर्थिक पृष्ठभूमि पर भेदभाव किए बिना। एक ऐसा स्थल जहाँ शिक्षक और बच्चों के मध्य एवं बच्चों व बच्चों के मध्य अन्त:क्रिया करने का पूरा अवसर उपलब्ध होता हो। जहाँ बच्चे यह उम्मीद करते हों कि शिक्षक उन्हें सीखने की सभी गतिविधियों में शामिल करेंगे। जहाँ बच्चों के अनुभव एवं पूर्व ज्ञान का सम्मान किया जाता हो। जहाँ बच्चे बिना डर–भय के अपनी बात कक्षा में रख सकते हों। जहाँ बच्चों द्वारा त्रुटियों को सीखने की सीढ़ी के रूप में देखा जाता हो। जहाँ बच्चे एक–दूसरे के सहयोग को सीखने की प्रक्रिया में शामिल करते हों।

अब बारी आती है शिक्षक के द्वारा अपने पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार कक्षा के संचालन की। कक्षा संचालन के दौरान की जाने वाली अनेक गतिविधियों को मुख्य रूप से दो भागों में रखा जा सकता है। एक वह गतिविधियाँ जिन्हें सीधे शैक्षिक प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं और दूसरी वह जिन्हें कक्षा में आवश्यक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए काम में लाते हैं। बच्चों को गतिविधियों के अनुरूप बिठाना, पुस्तक खोलने के लिए कहना, शार्पनर से पेंसिल में धार करने के लिए कहना, बच्चों से चॉक मँगवाना आदि ऐसे कुछ काम हैं जिन्हें हम शिक्षण की विशिष्ट गतिविधियाँ नहीं कह सकते बल्कि बच्चों द्वारा आपस में किसी मुद्दे पर चर्चा करने, खोज करने, शिक्षक के द्वारा किसी विषय पर व्याख्यान देने जैसी गतिविधियों को विशिष्ट शैक्षिक गतिविधियों के रूप में देखा जा सकता है। कक्षा संचालन की इन गतिविधियों में पढ़ाए जाने वाले विषय के लिए बच्चों के पूर्व ज्ञान को टटोलना, उन्हें उनके पूर्व ज्ञान को व्यक्त करने का अवसर देना भी महत्वपूर्ण है।

कक्षा संचालन के दौरान शिक्षण सहायक सामग्री के उपयोग के बारे में बहुत–सी भ्रान्तियाँ शिक्षकों में अभी भी मौजूद हैं। जैसे भूगोल में ग्लोब की समझ पर आधारित पाठ में पूरी कक्षा के लिए सिर्फ ‘एक’ ग्लोब का उपयोग करते हुए शिक्षक यह मान लेता है कि पूरी कक्षा में एक ग्लोब के उपयोग द्वारा अपेक्षित विषय वस्तु की समझ विकसित हो गई। जबकि केवल उन्हीं बच्चों में थोड़ी बहुत समझ विकसित होती है जिन्हें ग्लोब को छूकर– पास से देखकर समझने का अवसर मिलता है। छोटे–छोटे समूहों में बच्चे ग्लोब लेकर कार्य करें ऐसे अवसर देने के लिए एक कक्षा में एक से ज़्यादा ग्लोब की आवश्यकता होगी। इस प्रकार बच्चों में सीखने के अवसर को लेकर भेदभाव अनजाने में ही शिक्षण के दौरान हो जाता है।

यह सत्य है कि कक्षा में बच्चों को सीखने का अवसर कितना मिलता है यह इस पर निर्भर करता है कि उन्हें पाठ्यक्रम / पाठ्यचर्या द्वारा निर्धारित विषय वस्तुओं की गतिविधियों में भाग लेने का कितना अवसर मिलता है। यहाँ सीखने के अवसर में ‘समता’ एवं ‘समानता’ जैसे शब्दों के असल मायने को शिक्षण के दौरान ध्यान में रखना होता है।

कक्षा में शिक्षण के दौरान बच्चों के सीखने की प्रक्रिया और प्रकृति को भी ध्यान में रखना होता है। जब हम कहते हैं कि बच्चा स्वयं सीखता है, अपने साथी से अन्तःक्रिया करते हुए सीखता है, छोटे समूहों में सीखता है, तो सीखने की यह प्रक्रिया कक्षा में हो पाए इसके लिए कक्षा में बच्चों को अवसर देना होगा। इस प्रकार के सहयोगात्मक अध्ययन (को–ऑपरेटिव लर्निंग) से हम प्रभावशाली शिक्षण के साथ सामाजिक अन्तःक्रिया को प्रोत्साहित कर सकते हैं। यह बच्चों की रुचि, विषयगत मूल्य एवं उनकी सकारात्मक अभिवृत्ति को भी बढ़ाता है। चूँ‍कि चर्चा करना को–ऑपरेटिव लर्निंग का मुख्य हिस्सा होता है अतः इसमें संज्ञानात्मक एवं उनकी सह–संज्ञानात्मक क्षमता को पोषित करने, उसे विकसित करने की पूरी गुंजाइश होती है। जबकि परम्परागत शिक्षण प्रक्रिया में पूरी कक्षा को किसी एक ही विषय वस्तु पाठ में एक साथ एक ही स्तर का मानकर शिक्षण कराया जाता है, साथ ही जो कार्य बच्चों को दिए जाते हैं उसे सभी बच्चे व्यक्तिगत रूप से करते हैं व एक नियत समय में करते हैं। को–ऑपरेटिव लर्निंग में भी पूरी कक्षा के साथ एक साथ ही काम होता है, लेकिन इसमें बच्चों का जोड़ी में काम करना, छोटे समूहों में भागीदारी करते हुए काम करना इसे विशिष्ट बना देता है। यह सीखने को सार्थक बनाता है जिसे सामाजिक मूल्यों, जिनकी हमने शिक्षा के सामान्य मूल्यों के अन्तर्गत बात की, के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है।

यद्यपि को–ऑपरेटिव लर्निंग में विशेषकर छोटे समूहों में कार्य करने का अवसर देना कक्षा में उपलब्ध शिक्षण सहायक सामग्री पर भी निर्भर करता है। उदाहरण के लिए बच्चों में ग्लोब की समझ एवं पठन कौशल विकसित करने के लिए छोटे समूहों में ‘सीखने’ का अवसर देना है तो कक्षा में एकमात्र ग्लोब से काम नहीं चलेगा।

शिक्षण रणनीति में सामान्य सीखने एवं पठन कौशल के अलावा अर्थ निर्माण, गणितीय समस्याओं को सुलझाना और वैज्ञानिक ढंग से तार्किक सोच के लिए शिक्षण करना शिक्षण का मुख्य भाग होना चाहिए। शिक्षण के दौरान सम्पूर्ण रणनीति में कुछ सवाल बच्चों के ज्ञान के सन्दर्भ में किए जा सकते हैं कि किसी ज्ञान/जानकारी को बच्चे कितना जानते हैं, कैसे जानते हैं, और इस समझ या जानकारी को कब, क्यों व किन परिस्थितियों में उपयोग कर सकते हैं। इस तरह की रणनीति से शिक्षण को पुख़्ता बनाया जा सकता है।

जैसा कि लेख के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि ‘आकलन’ शिक्षण प्रक्रिया में सम्मिलित है जो सतत चलता है तो इसके लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि एक शिक्षक अपनी शिक्षण प्रक्रिया के दौरान सभी बच्चों का यथोचित अवलोकन करता रहे। और अभ्यास और अनुप्रयोग का अवसर बच्चों को आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराता रहे। शिक्षक को हमेशा अनेक औपचारिक व अनौपचारिक मूल्यांकन के तरीकों को अपनी शिक्षण प्रक्रिया में स्थान देना चाहिए। मूल्यांकन चाहे जिस तरीके का हो वह लक्ष्य आधारित होना चाहिए। यह भी सत्य है कि अच्छी तरह से विकसित पाठ्यक्रम में मूल्यांकन/आकलन के घटक स्वयमेव शामिल होते हैं। समझ आधारित आकलन करते समय यह देखा जाना चाहिए कि बच्चे अपने उत्तरों में अपने तर्क को कितना स्थान देते हैं।

एक अच्छी शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक बच्चों का आकलन केवल ग्रेड देने के लिए नहीं बल्कि बच्चों की उपलब्धि को समग्रता में देखने के लिए करता है। साथ ही वह सीखने–सिखाने की प्रक्रिया के दौरान ही बच्चों की उपलब्धि व उन्हें सीखने में आने वाली कठिनाइयों का सतत अनुवीक्षण करता रहता है।

जहाँ तक सीखने और आकलन का सम्बन्ध है ज़्यादातर बच्चों को अभ्यास के मौक़े और करके देखने का मौक़ा देने से वह सीखने के लिए उत्साहित नज़र आते हैं। जैसे यदि गुणा सीख लिया तो बार–बार गुणा करने के अभ्यास के लिए बच्चों के द्वारा गुणा के सवालों की माँग करना। वह अपने सीखे हुए को और अच्छा करने के लिए अभ्यास करते हैं, बशर्ते सीखने का वातावरण शिक्षक ने बनाया हो। आकलन की कड़ी में अभ्यास और अनुप्रयोग की दिशा में अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से बच्चों को गृहकार्य देना भी एक सार्थक कदम हो सकता है। यद्यपि बच्चों को गृहकार्य देना आदर्श स्थिति में अनुचित समझा जाता है। इसके बावजूद प्रश्नों की प्रकृति और उसके कठिनाई के स्तर को ध्यान में रखकर गृहकार्य देने से अभ्यास के अवसर को बढ़ाया जा सकता है। यह गृहकार्य ऐसा हो सकता है जिसे वह स्वतंत्र रूप से स्वयं कर सके। गृहकार्य देने के बाद यह सावधानी रखनी पड़ती है कि अगले दिन बच्चे जब शाला आएँ तो उसे जाँचा–परखा जाए, सुधार की आवश्यकता पड़ने पर सुधारने के मौक़े बच्चों को अवश्य दिए जाएँ।

चिन्तनशील सोच- अब हम बात करते हैं शिक्षण चक्र के अन्तिम हिस्से ‘चिन्तनशील सोच’ (रिफ्लेक्टिव थिं‍किंग) की। यह एक कौशल है जो शिक्षक एवं शिक्षण के मध्य का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। यह एक तरह का स्व–आकलन/समीक्षा जैसा कुछ है, जिसमें शिक्षक अपने किए गए प्रयास को उद्देश्यपूर्ण उपलब्धि के साथ जोड़कर देखता है और अपने प्रयासों में लगातार सुधार करता है।

निष्कर्ष- इस प्रकार शिक्षण की तैयारी में शिक्षा के सभी पहलुओं को देखना एक अच्छी शिक्षण प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण है। आखिरकार शिक्षा तंत्र की उपादेयता इसी में है कि बच्चे का सर्वांगीण विकास हो और वह एक ऐसे समाज की रचना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सके जिसे संविधान की प्रस्तावना में संवैधानिक मूल्यों के रूप में परिकल्पित किया गया है।

डॉ० दिनेश कुमार गुप्ता

प्रवक्ता, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,

गंगापुर सिटी (राजस्थान) 322201

दूरभाष संख्या-9462607259

Mail: dineshg.gupta397@gmail.com