ना तो कबीर के सबद - रमैनी ,
ना कबीर की साखी सरीखी ,
तुकांत नहीं ....अतुकांत लिखी
फ़ैज़ के मिसरे सा नमक नहीं ,
ख्वाज़ा चिश्ती की न
इश्क़ ए हक़ीक़ी ,
बिन मतला और रदीफ़ ...लिखी
मीर की नज़्मों से कितनी फ़ीकी ,
कहाँ ग़ालिब की गज़लें -
कहाँ मेरी बेतरतीबी ,
बहर नहीं ......बेबहर लिखी
बाबा फरीद के कागा से ओछी ,
रूमी की बातों से पार न पाती ,
बिन छंद .... बिन सार लिखी
Kafkaesque हालातों से थोड़ी बोझिल ,
कीट्स के पतझड़ की पीली पत्ती से थोड़ी पीली ,
कविता नहीं ....अकविता रची
क्योंकि
सब कविकर - गुणीजन कहते हैं
सुनती हूँ कुछ मैं ...ऐसा सब...
कि
जब तक गुंजित होगी कविता
इस धरती के दस कोनों पर
उस दिन तक हरी दूब उगेगी ...
उस पल तक चिड़िया चहकेगी
जिस पल तक गढ़ती जाएगी
उस पल तक मन भर के जीवन...
उस पल तक नम आँखें होंगी
जब तक स्याही कागज़ चूमेगी
उकरेगी फिर कोमल कविता..
ऊर्जा पा कर नम शब्दों की
पथराई माटी भी पिघलेगी
.....कोई आखर भजन बनेगा
कुछ शब्द रुबाई बन जाएगें
ऋचाओं के गुंजित स्वर से ...
महि अलौकिक श्रृंगार करेगी
ऐसा ही कुछ सोच के , मन में
चाहे रस कोईभी , हो न इसमें
पर लिखने की रस्म निभा कर...
न अ अ....कविता नहीं ...
अंतर्मन की..... बात लिखी ।
-- शालिनी श्रीवास्तव
बैंगलोर, कर्नाटक