क्या यह जीत है ? या हार?
मानव ही मानव का कर रहा संहार है।
हां यू तो जीत ही है दानवता की मानवता पर
असत्य अन्याय अधर्म की हर जगह होरही है जय ।
जीवन मूल्यों की कैसी हो रही है आज पग-पग पर पराजय ।
कराह रहीं है महान नीतियां ।
आदर्श विहीन हो गई हैं विधियां ।
रक्त की धारा वह रही है निरंतर, ने बलि हो रही है दर-दर।
क्या यही मनु पुत्र है ? क्या यही मानवता का उत्कर्ष है?
आतंक छाया है प्रत्येक मुख पर ,क्या यही है मानवता का प्रतीक?
और एतिहासिक परिभाषा? मन में संजोए हुए दूराशा।
गली कूचों मे पाट-पाट कर लाशे मनीषियों की पूर्ण कर रहा है प्रत्याशा?
पर एक दिन सबकी होगी इति, बहुत हो चुका अब तो चेतें
लोलूप सुप्त मानव रोक बर्बर नृशंस तांडव।
होम कर अब वहशीपन को और कलंकित न कर मानवता को।
ले पुनर्जन्म कर पवित्र और सुखमय इस धरा को।
सविता धर
नदिया, पश्चिम बंगाल