सब्र का बांध तोड़ते क्यूँ हो
अपना ही राज खोलते क्यूँ हो
इस सियासत का भरोसा क्या है
हर सुबह कड़वा बोलते क्यूँ हो
कद्र करना भी सीखा लो तुम भी
फ़र्ज़ से मुंह को मोड़ते क्यूँ हो
सारी जनता निराश हैं तुमसे
फिर भी अब हाथ जोड़ते क्यूँ हो
हर बुरे वक्त में मैं साथ रहा
साथ मेरा ही छोड़ते क्यूँ हो
धीरे चलकरके ये सफर देखो
क्या है जल्दी भी दौड़ते क्यूँ हो
चाहते हो क्या सीधा सीधा कहो
दिल ये रंजन टटोलते क्यूँ हो
आलोक रंजन इंदौरवी