जिन गलियों में दोस्त छूटे थे,
बचपन भी वहीं छोड़ आई थी।
रातों में है बनावटी रोशनी,
असली चांदनी तो वहीं छोड़ आई थी।
वो पार्कों में झूलों का इंतजार करते,
चुपके से पेड़ से आम अंगूर चुराते।
सुबह की जीवनदायनी पवन,
और खुशबू रातरानी की वहीं छोड़ आई थी
वो मां का प्यार ,बाप का दुलार
भाई बहन से प्यार वाली तकरार,
सखियों संग ठिठौली वहीं छोड़ आई थी।
मैं तो वहां से कुछ भी नहीं लाई फिर क्यूँ ?
सुने पड़े स्कूल के गलियारे,
क्यू टूटे झूले इंतजार करते बच्चों का।
क्या वो बचपन अब नही रहा,
मै तो सारी दुआये और प्रार्थनाएं वही छोड़ आई थी।
सुनीता सिंह