नीलाक्षी बरामदे में बैठी गौरैया की कटोरी में पानी डाल रही थी।डालते डालते उसे अपना बचपन याद आ गया। जब से दादी उनके संग रहने आई थी वो सारे दिन पीछे पीछे घूमती थी।
वर्षों पूर्व वो भी अपनी दादी के सँग छत की मुंडेर पर रखे घड़े में पानी डालती हुई दादी के हाथों को थाम कर रखती।उसे ये गुमान होता कि वो ही रोज पानी देती है।देने के संग ही छोटी छोटी चिडियाँ पानी पीने आ जाती।
उनमे से एक छोटी सी गौरैया रोज आती पानी पीती और फुदक फुदक कर नाचती जैसे नीला के संग खेल रही हो।
नीलाक्षी भी बैचैनी से इन्तजार करती राधा के आने का।राधा और नीलाक्षी घंटो खेलती।फिर राधा फुर्र से उड़ जाती और नीला भी नीचे चली आती।
नित्य की भांति एक दिन पानी देकर नीला इन्तज़ार करती रही किन्तु राधा नही आई।और इस तरह कई दिन बीत गए इन्तज़ार में।नीला रोज छत पर जाती और रुआन्सी होकर लौट आती।
फिर एक रात माँ ने देखा नीला नींद में कुछ कुछ बड़बड़ा रही थी।देखा तो बदन तप रहा था और वो राधा राधा पुकारे जा रही थी।
माँ ने माथे पर गीली पट्टी रखी दवाई दी और सारी रात सिरहाने बैठी रही। तीन चार दिन बीत गये किन्तु तबियत में कोई सुधार ना था।फिर दादी ने मशवरा दिया कि बाज़ार से एक छोटी सी गौरैया लाई जाये ताकि राधा की कमी पूरी हो सके।
अगले ही दिन पापा पिंजरे में एक नन्ही सी गौरैया को ले आये।देखते ही नीला खुशी से झूम उठी और उसका बुखार काफुर हो गया। अब तो नीला खुश सारा सारा दिन पिंजरे के सामने बैठी बतियाती। एक दो दिन तो गौरैया भी अन्जानी भाषा में कुछ कहती और फुदकती पर फिर ये क्या जैसे ही राधा पंख फैला कर उड़ने की कोशिश करती और पिंजरे से टकरा जाती।
धीरे धीरे अब राधा की हालत भी नीला जैसी हो गई।चुपचाप ना खाती ना पीती।
नन्ही नीला का निष्पाप मन ये सब देख स्वतः ही समझ गया कि राधा क्युं उदास है?अचानक नीला ने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया और राधा फर्र से उड खिडकी पर जा बैठी।दादी ये देख कर अचंभित।
शाम को ऑफ़िस से लौट मम्मी पापा ने इसका कारण पुछा तो वो बडे ही भोले मन से बोली कि जब आप और मम्मी मुझे ऑफ़िस जाते वक़्त रोज क्रेच में छोड आते थे तो मै भी सारे दिन उदास रहती और मन करता की दौड़ के माँ के पास चली जाऊ किन्तु दरवाजे बन्द हो जाते।
इसलिये मैने आज पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। ताकि राधा भी अपनी माँ के पास जा सके।
जो बात उन्हे वयस्क होकर नही समझ आई वो कैसे कितनी सरलता से छोटे से मन ने समझ लिया।
दूसरे दिन माँ ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
उन्हे ये समझ आ गया कि केवल अपनी आकांक्षाओ की पूर्ति के लिये कीमती वक़्त खो दिया।
दूसरे दिन सुबह नीला की आँखे अचानक ही परिचित आवाज से खुली देखा
उस दिन तो नीला को जैसे सबकुछ मिल गया देखा आज खिडकी पर पिंजरे की मुक्त राधा जैसे नीला को बुला रही है खेलने के लिये।
अचानक ही माँ माँ का स्वर और आँचल में खिंचाव महसुस हुआ। नन्ही पलक बुला रही थी।
नीलाक्षी ने गोद में उठा लिया।
आज बडा फक्र है उसे अपने माँ होने पर। चाहती तो वो भी नौकरी कर अपनी अतिरिक्त ख्वाईशो को पूरा कर सकती थी किन्तु उसने पलक के बचपन को पाना और जीना चाहा ताकि फिर किसी दूसरी नीला को बन्द दरवाजे की घुटन महसुस ना हो।
-शुभ्रा बागची (घोषाल)