समझ लीजे कि वे चिकने घड़े हैं
बस इक अपना ही कद है सबसे छोटा
तुम्हारी बज़्म में सब कद बड़े हैं
ज़रूरत है हमें ऐसे ही जन की
जो अन्दर नर्म बाहर से कड़े हैं
न लड़ पाओगे ,है दावा हमारा
हम अपने वक़्त से जितना लड़े हैं
जड़ें जिनकी बहुत गहराई तक हैं
शजर वे ही बहुत ऊँचे खड़े हैं
धर्मेन्द्र गुप्त
के 3/10 ए. माँ शीतला भवन,
गायघाट, वाराणसी