उसी कमरे के
श्याम पट पर
लिखता हुआ
तुमको मिल
जाऊंगा रोज़ ।
जिस कमरे में
वर्षों पूर्व
तुमको अंधेरे से
प्रकाश की और
जाने के सपने
दिखा रहा था , मैं ।
कोई चांद पर गया
कोई बॉर्डर पर
शाहिद हो गया
जाने कितने आए
जाने कितने गए
फिर भी मैं सभी को
उसी कमरे में मिला ।
वक्त की आंधियां
कुछ ऐसी आई
टूट गई दीवारें
दब गए श्यामपट
मिट गई हस्तियां
अंधेरे में फिर , गुम
हो गई बस्तियां ।
बूढ़ा बरगद खड़ा
रो रो कर कहता है सब
श्यामपट से जहां
रोशनी मिलती थी यहां
इन लोह-कारखानों से
काली - जहरीली धुंआ
निकलती है अब ।
उड़ गई सभी पंक्षियां
बिखर गई सभी बस्तियां
मैंने इसी कमरे से ,तुमको
ज्ञान की रोशनी दिया
उसी रोशनी में तुमने
मुझको ही जला दिया ।
स्वार्थ में आकर तुमने
ये क्या कर दिया
मानव होकर भी तुमने
मानवता का
दीपक बुझा दिया ।
पछताओगे आखिरी
वक्त में
फिर तुम
उस वक्त न दीवारें होगी
न होगा ये श्यामपट
जिस पर तुम्हें पढाता था
मानवता का पाठ ।
सोंचता हूँ
अक्सर मैं
मेरा अगला जन्म
इसी कमरे में हो
क्योंकि
श्यामपट है काली
मगर
जिंदगियां करती है
उजाली ।
डॉ0 मुकुंद रविदास
सहायक प्राध्यापक
बी बी एम के यू ,धनबाद
झारखंड