नीले गगन को छूना चाहती हूँ।
ईश्वर की बनाई इस सृष्टि के
हर रूप से रुबरु होना चाहती हूँ।
रह कर बंद मर्यादा के पिंजरे में
मन में उमंग के रंग भरना चाहती हूँ।
हाँ मैं अपने बल पे उड़ना चाहती हूँ।।
राहों में कांटे मिलेंगे लाखों बिछे
चल उन पे मंजिल पाना़ चाहती हूँ।
बचपन में जो देखे ख़्वाब हमने
उन ख्वाहिशों को पूरा करना चाहती हूँ।
औरों की नजरों से खुद को देखते-2
खुद को भी अब पहचाना चाहती हूँ।
हाँ मैं अपने बल पे उड़ना चाहती हूँ।।
सबके अनुसार थक गई ढलते-2
कुछ पल अपने लिए जीना चाहती हूँ।
खुद के लिए मतलब वाला प्यार नहीं
मैं अपना भी स्वाभिमान चाहती हूँ।
माँ,बेटी,बहू वाली सिर्फ पहचान नहीं
जिंदगी की किताब पर एक पन्ना
अपने अस्तित्व का लिखना चाहती हूँ।
हाँ मैं भी अपने बल पे उड़ना चाहती हूँ।
-प्रियंका त्रिवेदी
बक्सर, बिहार