खींच दी थी तुमने जो,
कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें
मेरे मन के कोरे पन्नों पर ।
बन गए हैं उनसे कुछ,
रुपहले चित्र ।
जिनमें मैं हूँ,
तुम हो..
और है न जाने कितने किस्से,
कितनी कहानियाँ ।
दूर-दूर तक फैला
खुला आसमान..
मीलों तक फैली फूलों की चादरें ।
घुली है हवाओं में कोई
अज़ीब सी मदहोशी
टेढ़े-मेढ़े वीरान रास्ते ..
जिन पर फैले है सूखे पत्ते,
और चले जा रहे हैं हम
एक-दूसरे में खोये..
पता नही कब तक ?
कहाँ तक ??
काश ! कभी बाहर न आयें
उन पन्नों से,
बस जायें उनमें...
युगों युगों के लिए
और छोड़ जायें,
बहुत सी दास्तानें..
तुम्हारी, ...... मेरी,
और हमारे प्रेम की...
-जय कुमार
शामली, उत्तर प्रदेश