घिन से भी घिनौना ये समाज है।
आदमी नही है यहाँ अब कोई,
आदमी के भेष में ये तो बाज है।।
भोर उठ जाये जब घर में बेटी,
पूरा करती घर का ये काज है।
खुद पढ़ लिख मेहनत कर,
जिसपर परिवार करती नाज है।।
यहाँ बेटी जब बहूं यहाँ बन जायें,
सिर अपना ढक रखती वो लाज है।
आज भी गाँव की पावन बेटियां,
बचा के रखती ये पुराना रिवाज है।।
मन की भावनाये त्याग कर बेटी,
छुपा के रखती दिल में गहरा राज है।
रोती है बेटियां दुःख में भी छुपकर,
क्यो सुनाती नही उसकी आवाज है।।
बना के वो सब पतंग बेटियों को,
डोरी बन बदलते अपना मिजाज है।
प्रेम छल का फास काटते पतंग यहाँ,
कहते पतंग ही पतंग को पैतरेबाज है।।
प्रेम दिखा अपने ही ताना मारे यहाँ,
लगें बदला हुआ उनका अंदाज है।
कीड़ा लगा के बैठे जब नियत में वो ,
आशा दिखा बनते वो फिर दगाबाज है।।
मारते है ताना लोग दिखे जब बेटियां,
बीच रास्ते हरण करते उनकी लाज है।
मार दिए जाये बीच रास्ते में ही बेटियां,
यहाँ उस पर भी राजनीति का रिवाज है।।
क्यू नारी ही मारती है बहूं बेटियां,
उठता ये प्रश्न जग मे फिर आज है।
नर संग नारी क्यू भ्रूण भक्षण करें,
जग पूछे कैसा राक्षस सा समाज है।।
बेटी ने बसाया हुआ यहाँ है पूरा जग,
पूजे पूरा जग माता को जब गणराज है।
माता ही तो होती है ये बहूं बेटियां,
जिससे जन्मे राम कृष्ण भरतद्वाज है।।
अरे करे जो गलत अब बहूं बेटियों पर,
उसका बस कह दो एक ही इलाज है।
हाँथ पैर काट चारों बिठा दो चौराहे पर,
कह दो सजा देने का अब यही अंदाज है।।
-सोमेश देवांगन
कबीरधाम(छ.ग.)