आ भी जाओ ना मैं इंतज़ार में हूँ ,
ख़ुशनुमा उस पल के दीदार में हूँ।
पहले तो यूँ ही आ जाया करते थे,
कई किसिम के उपहार भी लाते थे।
सुंदर परिधानों से सज-धज कर,
शीशे के सामने बैठकर इतराते थे।
खाने खिलाने का दौर भी चलता था,
जमकर झूठी क़समें,झूठे वादे खाते थे।
बाँस की आरामदायक बिछात में,
मन मोहक छटा दिखाते,लुभाते थे।
घंटों इन दृश्यों को निहारते रहना,
वक्त अपना पता कहाँ बतलाते थे।
कई गीतों को भी यहीं स्वरूप मिला,
तुम्हारे क़लम चमत्कार दिखलाते थे।
तुम मोरपंखी रंग सा जामा पहने हुए,
सपनीली दुनिया से रिझाते,झाँकते थे।
जब-जब मुझे ये सूनापन सालता,
तुम ख़ुश्बूओं से रग-रग महकाते थे।
बैठे से दिखते हो ये प्रतीत होता है,
तुम नज़रों के धोखे से भरमाते हो।
मौन शब्दों से पुकारती रहती हूँ,
तुम ठंडी आहटों से सरसराते हो।
घने काले बादल जब भी गड़गड़ाते,
वो दृश्य देख मैं घबरा जाती हूँ।
कायनात भी देख रश्क करती है,
तुम सिरफिरे आशिक़ कहलाते हो।
जब भी हमने तुम्हें पास बुलाया,
ख़ुदा की बंदगी का बहाना बनाते हो।
साथ बैठ जाते तो क्या बिगड़ जाता,
‘प्रीति’ को आँसुओं संग नहलाते हो।
डॉ० प्रीति प्रवीण खरे
सुरुचि नगर, भोपाल
मध्य प्रदेश