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उतरन

           रजनी का जीवन हमेशा उतरन पर ही टिका रहा..बचपन से लेकर अब वि
वाह जैसी बात भी ...किसी की छाड़न ही उसका भाग्य बनेगी....उसने कोई सपना देखा ही नही...उसे न जाने क्यूँ ये विश्वास हो चला था कि मुझे किसी भी चीज के लिए तरसना नही पड़ेगा....क्योंकि मैं ही उस वस्तुस्थिति में फिट बैठती हूँ.

अब विवाह के पश्चात एक नये माहौल में उसे अपने को ढालना था..

खूद में कई सवालों की गठरी लादे भरे मन के साथ वह सहमी-सहमी पति की अनुगामिनी  बनकर चली आ रही थी.

अपने कदम बढाते हुए उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था...मानो कोई वजनी चीज बाँध दी गई हो.

दहलीज की रेखा पार करते ही उसे उस वजन का एहसास हो गया था.

अब जिस कमरे में उसे ले जाया गया....उसके अंदर कदम रखने से पहले ही दो आँखे उसे घूरती दिखी....लगा उससे कह रही हो ...रुक जाओ,..वहीं रुक जाओ.इतना आसान नही किसी की पदवी लेना.

रिश्ते की ननदों ने मजाकिया लहजे में कहा..अब आप तैयार रहिए...नयी जिंदगी की शुरुआत है.

कमरे के दरवाजे बाहर से सटाकर वो लोग जा चुकी थी...एक गहरा सन्नाटा कमरे की हर कोने को भेद रही थी.

चारों तरफ नजर घुमाती हुई वह

पलंग के एक कोने में दीवार से सट कर बैठ गई.

वो उस आँख को देख रही थी...आँखों से अंगारे बरसाती वो आँखे.

एक पल को सहम गई थी...किसी को आवाज देना चाहा...पर गले ने साथ ही नही दिया.

पूरा शरीर पसीने से लथपथ....पंखे की स्वीच ऑन की तो एक अजीब आवाज के साथ डैने घुमते रहे.

उसे लग रहा था वह जबरन किसी की जगह ले रही हो जिससे हरेक चीज अगाह कर रही थी.

धीरे-धीरे सामान्य होती आवाज और पंखे की हवा में आँखे लग गई...अभी कुछ पल ही हुए थे कि

अचानक से दरवाजे पर किसी के कदमों की आहट ने जगा दिया था.

वह उठकर खड़ी हो गई....

 तभी ...बैठ जाओ...अब हमलोग के सिवाय और कोई नही हैं.

कपड़े बदलना चाहो तो बदल सकती हो....वो थोड़ा असहज हो गई.

पहली बार ऐसी बात किसी ने की थी...और उसने कुछ न कहा.

उसकी आँखो में कोई हसीन ख्वाब न थे..थोपे गए रिश्ते बड़े बोझिल होते है..

वो अंजाना सा शख़्स अब अपने अंजानेपन के खोल से बाहर आ गया था.

उसने बताया कि उसे फूल और उसकी सुगंध भरमाती है...

हाथ पकड़ धीरे से पास बैठा लिया था...अपने अधिकार  की खाता-बही खोल ली ....अपने में सिमटते-सिकुड़ते देख कहा....इस शर्म और हया की दीवार  जितनी जल्दी गिरा दो उतना अच्छा..

एक करंट सा दौड़ गया सारे शरीर में...

इशारे से उस तस्वीर की ओर देखकर बताया कि वो आँखे कितनी खूबसूरत थी..जिसे देख वह मदहोश हो जाया करता था.

फूलदान में सजे फूल को हाथों मे ले चुमता रहा...जबतक की उसकी महक बरकरार रही.

फूल की खुशबू से खूद को तरोताजा कर लिया उसने..

ख्यालों में डूब फूल की पंखुड़ियां देर तलक तोड़ता रहा ...

बातों में ख्यालों में उसने अपने आप को ढूँढना चाहा...मिली भी तो बेजान जिस्म की तरह...

उसका होना न होना...अब आए दिन की बात हो गई..

रिक्त स्थान की पूर्ति भर थी वो...खुमारीयों में वह कहीं नहीं थी..

अपनी मौजुदगी का हरपल एहसास दिलाती ताकती वह आँखे..और वह किसी वियावान जंगलों में भटकती अपनी ही खोज में मृग की भांति छटपटाती रही.

एक तरफ वो आँखे उसपर हँसती रही..दूसरी तरफ उसकी आँखे बरसती रही.

 

सपना चन्द्रा

कहलगाँव

भागलपुर, बिहार