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सम्पादकीय

आओ बातें करें     

     आज संसार बड़े विचित्र से कालखण्ड में खड़ा दिखायी दे रहा है | एक छोटा सा देश यूक्रेन एक विशाल और सामर्थ्यवान देश रूस के सामने डटकर खड़ा है और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है | दुनिया तमाशा देख रही है | एक तरफ यूक्रेन को भारी जन-धन की हानि हो रही है तो दूसरी तरफ रूस के सैनिक भी भारी संख्या में मारे जा रहे हैं | कभी-कभी तो लगता है कि यूक्रेन को सैन्य सहायता देने वाले देश उसका भला कर रहे हैं या उसे आत्मविनाश के लिए उकसा रहे है ? ये तो पक्का है कि हथियार देने वाले ये देश यूक्रेन की तरफ से युद्ध तो लड़ेंगें नहीं | तो फिर यूक्रेन किस चमत्कार की आस लगाये बैठा है ? जब रूस को लगेगा कि सीमित क्षमता वाले हथियारों से वह युद्ध नहीं जीत पा रहा है, तो क्या वह बड़े विनाशक हथियारों का प्रयोग नहीं करेगा ?

दूसरी तरफ देखा जाये तो अगर रूस यूक्रेन को खण्डहर और लाशों के ढेर में तब्दील करके यूक्रेन को जीत भी लेता है तो उसे हासिल क्या होने वाला है ? क्या कोई ऐसा भी अस्त्र-शस्त्र है जिसे चलाने से बर्बाद हुए नगर फिर से अपने पहले स्वरुप में जायेंगें ? सच तो यह है कि रूस भी विचित्र परिस्थिति में पहुँच चुका है | दुनिया में सन्देश जा रहा है कि रूस उतना भी समर्थ और अजेय नहीं जितना कि उसे समझा जा रहा था | यह युद्ध रूस को भी आर्थिक रूप से कमज़ोर कर रहा है |

वास्तव में देखा जाये तो ये युद्ध तो शासकों की कम राजनीतिक और कूटनीतिक समझ का परिणाम है | दोनों राष्ट्राध्यक्षों को युद्ध से पहले मिल-बैठकर बातचीत करनी चाहिए थी | वार्ता का एक दौर असफल हो सकता था या दो दौर असफल हो सकते थे,  सभी तो असफल होते | कुछ कुछ तो समाधान निकलता ही | युद्ध से तो बेहतर ही था कि साल-दर-साल मन्थन ही चलता | जो देश आज यूक्रेन को हथियार दे रहे है और जो देश राहत सामग्री दे रहे हैं उन देशों ने इन दोनों देशों को समय रहते सुमति क्यों प्रदान नहीं की ? |  सैनिकों और नागरिकों के जीवन तथा उनकी जीवन भर में कमायी पूँजी किसी भी राष्ट्राध्यक्ष की जिद से अधिक अहमियत रखती है | युद्ध की आग में झोकने के बजाय देश को युद्ध से बचाना ही किसी राष्ट्राध्यक्ष का पहला प्रयास होना चाहिए |

-जय कुमार

सम्पादक