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तेरा होना

इस होने में...... तेरा...होना!

ख़ुद को पाकर... सब कुछ खोना!

मधुमय जग के उल्लासों में!

अपने मन को भुला रहें हैं!

हम तो ख़ुद को लुटा रहे हैं । ।

 

मन से मन के आरोहण में!

जग के दृगकोषों के तल में!

नेह दीप के... कोर छोर से!

 नेह अश्रु...बस....गिरा रहें हैं!!

हम तो ख़ुद को... लुटा रहें हैं ।

 

शुचि सुधीयों सा निर्मल पावन!

स्नेह सृजन का गौरव हर क्षण !

वृन्दावन सा कतिपय सुन्दर!

 सदन आश अब बना रहें हैं!!

हम तो ख़ुद को.. लुटा रहें हैं ।

 

सोचो तुम! बैठे हो सब.. तज!

नहीं चाहते अब... कुछ इस पल!

हम... उम्मीद... संजोये सम्मुख!!

ख़ुद को... ख़ुद से..मना रहें हैं!

हम तो....ख़ुद को... लुटा रहें हैं ।

 
आओ अब मिल... पाओ मुझमें!

ढूंढ रहे... जो... तुम...चेतन में!

अवचेतन के भाव संजो कर!

हम चेतन हो बुला रहें हैं!!

हम तो ख़ुद को लुटा रहें हैं!

 

डॉ 0 सत्य प्रकाश

वैज्ञानिक एवं शिक्षाविद्

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

वाराणसी , उत्तर प्रदेश