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जीवन

 तिनकों का आशियाँ

अधूरा सा है

न कोई गाँठ पूरी हुई

मुझसे

न कुछ सामान सहेजा

मैंने

जिसे खोला था तुमने

हौले से

वो दरवाज़ा अब भी

अधखुला सा है!

कहीं बिखरी हूँ

धुले हुए कपड़ों सी

कहीं टकराती हूँ

बर्तनों सी

बोलती हूँ

फिर से फ़िज़ाओं में

सन्नाटा घुला सा है

चलूँ..... उठूँ.....

कुछ काम करूँ

आह को समेटूं

दर्द को तहा करूँ

जाने कौन सा खंज़र

सीने में

थमा सा है!

फिर भी

जीवन्त जीवन

मुझ में रमा सा है!

डॉ0 प्रिया सूफ़ी