उस वक्त मैंने उससे विशेष कुछ नहीं कह कर-केवल इतना ही कहा था-" उनके बारे में जानोगे तो तेरे पांव तले की जमीन खिसक जायेगी, फिर भी बताऊंगा, पर कार्यक्रम के बाद-रुकना कहीं जाना नहीं..।"
यह एक प्रखंड स्तरीय सालाना विचार गोष्ठी थी विषय था " सामाजिक संवेदना का क्षरण " इसमें क्षेत्र के तमाम बुद्धिजीवी आमंत्रित थे । उन्हीं में संजय बाबू भी बतौर अतिथि शामिल थे ।
रणधीर और संजय बाबू एक ही गांव से थे । लेकिन लगता दोनों दो अजनबी है । रणधीर की बातों से लगता दोनों के बीच एक खाई है जो काफी गहरी है । रिश्ते में चाचा भतीजा थे पर रणधीर में भतीजा वाली भावनाएं नदारद थी। उलटे संजय बाबू के नाम से ही वह लहर उठता था -शायद मन में कोई खुंदक रही हो लेकिन रणधीर के प्रति संजय बाबू के मुंह से कभी कोई अनुचित शब्द आज तक मैंने नहीं सुना था।जब भी वह इसके बारे कुछ कहते -रणधीर बाबू ही मुंह से निकलते सुना । वहीं रणधीर संजय बाबू को लेकर बार बार आपत्ति जताता रहा है कई बार इसकी वजह जानना चाहा पर कारण कभी बताया नहीं उसने ।
उस दिन करम महोत्सव में उन्हें मंचासीन देख वह एकदम से असहज हो उठा था । बिफरते हुए कहने लगा -" अरे भाई यह आदमी अपने किस महान कार्य की वजह से मंच पर विराजमान है ! मैं तो अपने न्यूज में इसका नाम तक न लिखूंगा । क्यों लिखूं भला ? यह कोई सेलीब्रिटी है, कोई राजनेता है या...!"
" यह एक बुद्धिजीवी है.. लेखक है !"समझाने की लहजे में उनसे कहा था।
" क्या कहा...? लेखक और ये..? भांग खाये हो क्या तुम..?"
उसका यह कहना मुझे बहुत बुरा लगा । रणधीर लगातार संजय बाबू का अपमान ही नहीं तिरस्कार भी किये जा रहा था । जी चाहा उसे फटकार लगा दूं फिर सोचा -चलो इसी बहाने इसके अंदर का गुबार और गंदगी को बाहर आने देते है। उसका बकना बंद नहीं हुआ था-" अगर इसके जैसा आदमी लेखक होने लगे तो गली-मोहल्लों में कुकुरमुतो की शक्ल में लेखक मिलने लगेगें..! अरे ये जो रोज चार बजे भोर गाय-बैलों को चराने जंगल ले जाता हो, बकरियों के लिए हर दिन माथे पर पाल्हा ढोकर लाता हो, सावन में जो खुद हार जोतता हो .. और बाकी समय आफिस जाकर कलम घिसता हो फिर यह लिखता कब है ? वाल्मीकि की तरह कौन सी ग्रन्थ लिख दी इसने जो तुम लोगों ने इसे मंच प्रदान कर दिया है...? लेखक कह-कह कर इसे सर पे बिठा लिया है....!"
" एक नहीं दो नहीं बल्कि चार किताबें लिख चुके हैं इन्होंने....!"
" क्या कहा चार-चार किताबें .. किसी की चोरी ही की होगी इसने...!"
" चपरी में चोरी हो गयी है, रिपोर्ट लेने मुझे वहां जाना है । और यह लाने-ले जाने वाला काम मुझसे नहीं होगा ..!" कह वह भी घर से निकल गया । रीता देवी कपार पकड़ कर आंगन में ही बैठ गई थी। जब याद आया उसे कि काम पर जाना है, तो चप्पल पहनी और वह भी बिना खाये पीये चल दी । कोलियरी घर से पांच किलोमीटर दूर। भारी शरीर । चलते चलते आधे रास्ते में दम फूलने लगा। बैठी फिर चली, फिर बैठी फिर चली । इस तरह हाजरी घर आधा घंटा लेट पहुंची । हालांकि हाजरी तो हाजरी बाबू ने बना
दी पर चार बातें भी सुना दी-" आज बना दी हमने,रोज रोज ऐसा नहीं होगा...!"
लौटने के वक्त गांव के एक देवर ने बिठा लिया तो मरने से बची । घर में तनाव कम नहीं हुआ। दोनों बेटे अपने मन की करते रहे। दो दिन काम नागा चला गया। उसे क्रोध और चिंता दोनों हो रही थी पर बेटे सुनने-मानने को तैयार नहीं । बेटी दामाद को बुलाई पर कोई लाभ नहीं। न पत्रकार आगे आने को तैयार न बड़का मानने को राजी।
" चलिए. हमारे यहां रहिए । देखता हूं कैसे रास्ता निकलता है " दामाद ने कहा
भारी मन से रीता बेटी दामाद के साथ चली गई थी। तब से वहीं थी ..!
फाइलेरिया रोग से पीड़ित रीता देवी के साथ जो कुछ हो रहा था और जिस तरह की जिंदगी वह गुजार रही थी दो दो
संजय बाबू को एक जगह और कहीं जाना था । संचालन कर्ता ने दो के बाद ही उन्हें अपना विचार रखने के लिए आमंत्रित किया तो उन दोनों का ध्यान भंग हुआ । रणधीर उठ कर वहां से चल दिया था ..
" आज का जीवन बड़ा कठिन हो गया है !" -संबोधन के बाद संजय बाबू ने कहना शुरू किया"- जीवन की भाग दौड़ में मनुष्य को यह पता नहीं चल रहा है कि कौन कहां पीछे छूट गया और कौन उससे आगे निकल गया । सब इसी आपा धापी में लगा हुआ है। लोग जीने से अधिक दिखावे के मुरीद होते जा रहे हैं। इसके लिए भी उन्हें हर पल संघर्ष करना पड़ रहा है । ऐसे में मीडिया वाले पत्रकार और लेखकों का जिम्मेवारी काफी बढ़ जाती है । एक और जहां पत्रकार समाज का आईना होता है वहीं लेखक समाज के लिए दगरीन का काम करता है । अगर पत्रकार बुराई के खिलाफ नहीं लडता-लिखता है और जिसमें उसका ही बदरंग चेहरा नजर नहीं आता है तो उस आईने को तोड देना चाहिए और हल थाम लेना चाहिए ताकि जीवन दर्शन को समझ सके । ठीक उसी प्रकार अगर लेखक की लेखनी में वो धार नहीं है जिसके दम पर कभी कई देशों में राज्य क्रांतियां हो चुकी है तो उसे लिखना छोड़ किसी कारखाने का मिल मजदूर बन जाना चाहिए ।
जहां लालच का वास वहां सब बकवास .. धन्यवाद.!"
अर्जेंट कॉल का बहाना कर रणधीर आधा घंटा पहले जो निकला था अभी तक सभा स्थल में लौट कर नहीं आया था । लगा खुद की कहानी की बात सुन वह डर गया था । कहावत है चोर का चेहरा हमेशा डरा डरा रहता है। निर्भय की हंसी वह कभी हंस नहीं सकता है । वही हाल रणधीर का था ।
सभा समाप्त हो चुकी थी। अतिथि जा चुके थे । मैं अब भी रणधीर का इंतजार कर रहा था। उसे यह बताना चाह रहा था कि औलादों वाली मां केवल तुम्हारी ही मां नहीं है ...पर लौट कर आवे तब न!
पुलिस पहुंच चुकी थी। जांच पड़ताल जारी था ।
“ मैं तो कहती हूं मां को यहीं ले आओ, और नौकरी देने के लिए राजी कर लो !”
“ आज कल बदली में नौकरी मिलता कहां है….? “
“ सुनते हैं मरने के बाद नौकरी मिल जाती है…! “
कुछ दिन पहले रीता देवी को उसका बड़ा बेटा खिरू यह कहते हुए “ मां माफ करो,जो हुआ सो हुआ अब घर चलो, गांव में बड़ी बदनामी हो रही है। घर से ही काम पर आना जाना करना । अब हम तुम्हें कोई तकलीफ़ होने नहीं देंगे !”
उसके ठीक सप्ताह दिन बाद खिरू चुपके से ऑफिस हो आया था । मां ने कहा है बोल के ऑफिस के बड़ा बाबू से सर्विस सीट में किसका किसका नाम दर्ज है, देख आया था । और आज वही मां पइन झांका रस्सी से घर के पिछवाड़े लटकी मिली थी ।
मां की हत्या के आरोप में शाम को पुलिस ने खिरू को गिरफ्तार कर लिया !!
श्यामल बिहारी महतो
बोकारो, झारखंड