क्रन्दन कर उठा हृदय कवि का, शिशुओं का सुनकर चीत्कार।।
ख़ाकीन कर दिया पतनों ने, दे दी पछाड़ उत्थानों को।।
आ रहा पसीना पथरीली, काँपती हुई चट्टानों को।
हिल उठे कलेजे शिखरों के, घाटियाँ सिकुड़ कर चीख उठीं।
मौतें हो उठीं मुखर मौनी, लाशों पर नर्तन सीख उठीं।।
आ गया ज्वार उन लहरों में, जो कभी आज तक उठीं न थीं।
गुँथ गईं युद्ध में वे कड़ियाँ, जो एक सूत में गठीं न थीं।।
लग रहा अधकटे रुण्डों की, कर उठी भैरवी खेती हो।
या मुण्डमाल के लिए पुनः, काली रण चण्डी चेती हो।।
या महाकाल की आँख खुली, तीसरी ध्वंस की बेला है।
या स्वयं कालभैरव ने आ जग को इस ओर धकेला है।।
धरती की छाती छेद उठे, धरती पर बने बनाए बम।
दहला दी दुनिया दहशत से, हो रही बमों की बम बम बम।।
टी वी की छाती से निकले, परिदृश्य दिखाई देते हैं।
कुछ सत्य और कुछ भ्रमकारी, सन्देश सुनाई देते हैं।।
इस ओर विवश यूक्रेन खड़ा, उस ओर रूस की दमदारी।
इस ओर गुरिल्ला वारों से, उस ओर दनादन बम्बारी।।
इस ओर कराहें दबी दबी, उस ओर गर्जना गर्वीली।
इस ओर आह तक पीली है, उस ओर वाह तक रौबीली।।
इस ओर चतुर्मुख धुआँ धुआँ, उस ओर फूटते फव्वारे।
इस ओर जी उठा ध्वंस राग, उस ओर नृत्य द्वारे द्वारे।।
इस ओर ध्वस्त हो गया सृजन, उस ओर अहम् है मस्तक पर।
इस ओर भुखमरी पेटों पर, उस ओर दम्भ है दस्तक पर।।
इस ओर थम गई किलकारी, उस ओर ठहाकों का मिलना।
इस ओर झर चुके पारिजात, उस ओर पलाशों का खिलना।।
क्या नई भूख के प्यासों को, पानी न मिला पाताल तलक।
जो माँस चबा पी उठे खून, छोड़ी न नरों की खाल तलक।।
आखिर किसने जीवन्त देश, शमशान बना कर छोड़ दिया।
किसने मदमाते हाथी के, सामने हिरण को मोड़ दिया।।
किसके बल पर मृग पूत रहा, किसकी बातों में बहक उठा।
वे कहाँ गए हित के रक्षक, जिनके कारण तन दहक उठा।।
रो रही धरा रो रहा गगन, रो उठा नर्क का द्वार द्वार।
आँखों से झरने फूट पड़े, हा - हा खा - खा कर बार बार।।
रोको रोको यह महायुद्ध, यह महानाश का कारण है।
यह द्वन्द्व नहीं है बातों का, यह प्रलय भयंकर भीषण है।।
इसलिए कहूँगा मैं खुलकर, हर जीवन लेने वाले से।
तुम बड़े नहीं हो सकते हो, नव जीवन देने वाले से।।
जो हारेगा वह हार गया, जो जीतेगा वह भी हारा।
नुकसान सदा दोनों का है, तूने मारा मैंने मारा।।
जय विजय किसी की नहीं हुई, जो कहे समझ लो लम्पट है।
यह दानवता के मन की है , पर मानवता पर संकट है।।
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण"
इन्दौर (म.प्र.)