चिर काल से

अरुणिता
द्वारा -
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उम्मीद !चिर काल से.

सालों साल घिस रही है नारी

न थकती है

न हारती है

न घबराती है

बस निभाती है

परम्पराओं को

और से और बेहतर

तरीक़े आजमाती है

पापड़, गुझिया,चिप्स व

किसिम किसिम के पकवान

बड़ी लगन से बनाती है

तेल और घी के छींटे

न जानें कितनीं दाग छोड़

जाते हैं,

चाकू व छुरी के निशान

ताउम्र याद रहते हैं

कलछी व चिमटे की दुनियाँ

नारी के साज में सम्मिलित होते हैं

रिश्तों से बढ़कर कुछ नहीं उसके लिए

बदलते परिवेश में भी

दुपट्टे की कोर से

पसीना पोछते हुए

उम्मीद रखती है

खानें वाला सिर्फ "वाह" कह दे

और मन से खा ले

बस ! इतना ही चाहती है

वह अपनों से

तुमनें खा लिया

कब पूछा किसी नें

खैर,छोड़िए

हम खा लेंगे

आप बस "वाह"कह दो

"विजय" की  उम्मीद

उम्मीद !

चिर काल से...!!

                  विजय लक्ष्मी पाण्डेय

                       आजमगढ़ , उत्तर प्रदेश

 

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