जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी सूर्यास्त के बाद
आकाश में छा जाने वाली कालिमा
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी पीपल के पेड़ की घनी शीतल छांव
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी दोपहर की कड़ी धूप
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी नदी की कलकल बहती धारा
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी समुद्र में उठने वाली ज्वार
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी रिमझिम बारिश
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी मूसलधार वर्षा
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी मेघधनुष के सप्तरंग
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी आकाश में छाने वाले मेघ का आडंबर
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी पहली बारिश के बाद
आने वाली सोंधी-सोंधी महक
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी दामिनी की गड़गड़ाहट
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी सुनहरे सपने
जैसी लगती है ज़िंदगी ...
कभी डरावने और भयानक ख्वाब
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी बसंत की बहार
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी सूखे पतझड़
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी तन्हाइयों में भी हमसफ़र
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी अपनों के बीच भी बेगानों
जैसी लगती है जिंदगी...
कभी प्यार के नगमे
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी कोरे कागज़
जैसी लगती है जिंदगी...
कभी संजोएं हुएं सपनों
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी वास्तविकता का बयान
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी हसीन पल
जैसी लगती है जिंदगी...
कभी गुमनामी के अंधेरी काल रात्रि
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी बोझ को ढोने
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी ईश्वर का अनुपम उपहार
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी हर पल जश्न
जैसी लगती है ज़िंदगी...
कभी कर्मफल के हिसाब
जैसी लगती है ज़िंदगी...
समीर ललितचन्द्र उपाध्याय
मनहर पार्क:96/A
चोटीला:363520
जिला:सुरेंद्रनगर
गुजरात