नवरत्न जड़ित सोलह श्रृंगार कर,
स्वर्ग से उतरी नववधू-सी।
धानी चुनर ओढ़कर,
हरीतिमा फैलाती रत्नवती।।
शिव जटा से धरा पर उतर कर,
वसुंधरा को करती तृप्त।
जन-जन की प्यास बुझाती,
कल-कल बहती अमरतरंगिनी।।
झम-झम मेघ बरसता,
पुलकित होती प्रकृति।
हरित तृण बिखेरती सुषमा,
चित्त लगाता नीलांबरी।।
मन्द-मन्द मधुर तरंग,
तरू-पल्लव संग करती अठखेली।
सांसों मे बसती प्राणदायिनी,
निर्मल-निर्झर बहे शुद्ध स्पर्शन।।
बाड़ी कानन दमकता,
और बिखेरता गंध।
सघन छांव मे देते ठावं,
पुहुप पर्ण सुषोभित द्रुम।।
तेरा आंचल हो गया मलिन,
तेरी सुषमा भी रंगविहीन।
चंचल मन हो गया उदास,
वसुंधरा अब रहती निराश।।
जाह्नवी हो गई प्रदुषित,
अस्वच्छ बहे पवन।
कुल्हाड़ी से काट रहे कानन,
अवनी हो गई बंजर।।
ना बचे अब कांतार,
परिंदों का खतरे में प्राण।
जो न जागा अब इन्सान,
मिट जाएगा नामोनिशान।।
प्रियंका त्रिपाठी 'पांडेय'
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश