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दीवारें

 

दीवारों ने कहा ही कब था

तुम उकेरो दर्द भरे चित्र

अपना अक्स खोजो

मिल जाये कहीं सच्चा

कलम कूंची का वो सिरा

पकड़ कर क्यों उतारे मूरत

रंग ही बिखर गये हैं जो

व्याकुलता समझ वो

फर्श ही रंग दिया है जो

रंगी भी नहीं जाती दीवार

बारिशों में बरसा दर्द

कालिख में बदल गया है

वो कांई सा शनै शनै

हाथ भी रूकने से लगे हैं

ठहर सा गया है कलनाद

निर्झर जो आवेगों का

खो गया है कहीं वो समय

जब दीवारे बोलती थी !

वी . पी . दिलेन्द्र

रिसर्च स्कालर

राजस्थान विश्वविद्यालय

जयपुर, राजस्थान