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काश तुम मान जाती

         सुबह से ही घर में क्लेश मचा हुआ था। पति ने हाथ उठा दिया तो कौनसी आफत आन पड़ी?आशा
चुपचाप आँसू बहा रही थी। उसकी बात कोई सुनना नहीं चाहता था। माँ तो बिल्कुल भी नहीं।किसी भी कीमत पर नहीं ।अच्छा अब रोना-धोना बंद कर दो। जाना तो तुम्हें उसी घर में पड़ेगा।तुमनें
  कोई ना कोई गलती जरूर की होगी,वरना दामाद जी तो हीरा है हीरा।तू ही काले मुँह वाली हैं। जब देखो, दामाद जी में ही कमियाँ निकालती रहती हो।

कभी उसके अनुसार भी चल लिया करो। तुम्हारा पति है, कोई दुश्मन तो नहीं हैं।अपने मर्द को खुश रखना चाहिए। थोड़ा बहुत खा- पी लेता है तो कौन सा गुनाह करता है? बाहर भीतर का काम रहता है। लोगों से मेलजोल करना पड़ता है।आज मेलजोल नहीं बनाएगा तो क्या बुढ़ापे में---? कहकर माँ चुप हो गई। चलो तैयार हो जाओ। हम खुद तुम्हें पहुंचा कर आएंगे, और दामाद जी की खैर-खबर भी लेते आएंगे। पता नहीं किस हाल में होगा?

तुम तो दस दिन से यहाँ आकर पड़ी हो।तुम्हें अपने घर-बार कि बिल्कुल भी चिंता नहीं है। कैसे चलेगा तेरा घर?कभी तो समझ से काम लिया कर।चल मैं दमाद जी को समझा दूंगी। आगे से तुझ पर हाथ नहीं उठाएंगे। चल अब तैयार हो जा,जन्मजली।आशा को समझ नहीं आ रहा था। क्या करें,क्या ना करें? एक तरफ उसकी पीड़ा थी। एक तरफ माँ का अच्छा-खासा भाषण था। अभी शादी को एक ही साल हुआ था। पर रमेश तीसरी बार उसे पीट चुका था।

आशा का साथ देने वाला कोई नहीं था। बड़े भाई को कोई मतलब नहीं था। जब से शादी हुई थी,अपनी लुगाई के पल्लू से ही बन्धा रहता था। वह दिन कहती तो दिन, रात कहती तो रात। भाभी को मैं फूटी आँख नहीं सुहाती थीं। हमेशा भैया के कानों में मेरे खिलाफ जहर ही घोलती रहती थी। खुद को सती-सावित्री समझती थी, और मैं तो उसकी नजरों में त्रिया-चरित्र का खजाना थीं।वह बात-बात पर ताना मारने से नहीं चुकती थीं।

वह सभी के सामने मुझ पर चढ़ जाती थीं।"इसके लक्षण घर बसाने के नहीं है" यह तो दामाद जी को अपनी उंगलियों पर नचाना चाहती हैं। सारा दिन टीवी के आगे  बैठी रहती हैं। भाई भी उसकी बातों को सुनकर मेरी तरफ़ ही आंखें तरेरता रहता था। अपनी भाभी से सीख ले, घर कैसे संभाला जाता है? सीखने में क्या बुराई है?तेरी भाभी पढ़ी-लिखी होती तो,पता नहीं कितनी बड़ी नौकरी पर होती? वो तो उनके घर का माहौल ही अच्छा नहीं था। जो तेरी भाभी पढ़-लिख नहीं सकी। पर उसे घर-गृहस्थी का पूरा ज्ञान है, और तुम तो बारह क्लास पढ़ी-लिखी हो।फिर भी अपना घर सही से नहीं चला पा रही हो। गलती तो तुम्हारी ही है।

दामाद जी तो,हीरा है। सभी को उसमें ही कमी नजर आती थीं।आशा मन मार कर तैयार होने लगी। उसने खुद को ही दोषी समझ लिया था,इसके सिवाय चारा ही क्या था?माँ अभी भी बड़बड़ कर रही थी। करम- जली ढंग के कपड़े पहन लेती। क्या तुझे कपड़े पहनने का भी पता नहीं है? दामाद जी ने एक से बढ़कर एक साड़ी खरीद कर दी है। तेरा इतना ख्याल रखते है। पर तू क्या जाने हीरे की कदर?

 एक तेरे पिताजी थे। तीज-त्योहार पर भी नई साड़ी खरीद कर नहीं देतें थे। पर मैने कभी उफ्फ तक नहीं की,हमेशा कंधे से कंधा मिलाकर चली। कभी शिकायत का मौका नहीं दिया। तेरे पिताजी घर में सबसे बड़े थे। भरा-पूरा कुनबा था।पाँच भाई और तीन बहनें थी। सारे परिवार को संभालने की जिम्मेदारी हम दोनों पर थीं। एक-एक रुपया बचाती थी। तभी तो सभी भाई-बहनों की शादी समय पर हो गई।

मेरे देवर-ननदें हमेशा चिपके रहते थे। कभी मेरी बात नहीं टालते थे। टालते भी क्यों, मैं तेरी तरह सारा दिन मुँह फुलाएं नहीं रहती थी?माँ, बस करो। मैं तैयार हूँ,माँ। बस में बैठते ही माँ ने फिर से समझाना शुरू कर दिया। साथ वाली सीट पर बैठी बुजुर्ग महिला भी मुझें नई-नई सीख दे रही थी।

बेटी औरत का जीवन क्या है? पति के साथ ही सब कुछ है। पति खुश तो औरत का सारा जीवन खुश?मैं हां-हां में सिर हिलाती रही।मैने अपने आप को ही समझा लिया। पति की सारी बात मानूंगी। अब से कोई बहस नहीं करुँगी। मुझें अपना घर-परिवार बसाना है। शायद माँ की तरह ही सोचना होगा। सब माँ को कितना चाहते हैं?

पता नहीं माँ क्या जादू कर देती हैं? जैसे ही आशा ने ससुराल की दहलीज पर कदम रखा। रमेश नशे में धुत बैठा था।वह माँ के चरणों में बैठ गया।माँ भी उस पर सैकड़ो आशीर्वादों की बौछार कर रहीं थीं।वह उसे देखकर फूली नहीं समा रही थी। सभी माँ से बातचीत करने के लिए मरे जा रहे थे।माँ ने सभी को खुश कर दिया था। बाद में रमेश  भी खुशामद करने में जुट गया। बेटा तू तो मेरा राजा बेटा है।

आशा से कोई गलती हो जाए तो उसे माफ कर दिया कर।ये दो-चार क्लास क्या पढ़ गई है? खुद को मैडम समझने लगी है।माँ को अपनी बेटी को कोई कदर नहीं थी। रमेश भी माँ की बातें सुनकर फुला नहीं समा रहा था।अब माँ के जानें का समय हो गया था।माँ जी आप आती रहा करो।आपको देखकर हमारा मन खुश हो जाता है।

सभी माँ को बार-बार घर में आने को कह रहे थे। यह लोग मेरी माँ के सामने इतने अच्छे क्यों बन जाते थे? माँ, घर की दहलीज पर चुकी थी।

धीरे-धीरे अंधेरा बढ़ रहा था। वह अधिक नशे में था। कमरे में आते ही,वह अधिक प्यार जताने लगा। उसे मेरी जरूरत सिर्फ बिस्तर पर होती थी। इसके अलावा मैं उसे फूटी आँख नहीं सुहाती थी। वह इंसान नहीं, एक वहशी दरिंदा था। मुझें नोंच-नोंच कर खाता था। मैं सब कुछ चुपचाप सहन करती रहती थी। थोड़ी सी भी ना-नकुर करती तो वह जल्लाद बन जाता। खूब पीटता कपड़े तक नहीं पहने देता था। जब तक पीटता रहता, जब तक मैं बेहोश नहीं हो जाती थी। अब तो यह रोज का सिलसिला हो गया था। दिन भर घर का कामकाज करो। रात को पिटाई के लिए तैयार रहो।

अब तो आदत सी पड़ गई थी। उसे पीटने की और मुझें सहने की। उस रात घर में कोई नहीं था। वह अपने दो शराबी दोस्तों के साथ कमरे में घुस गया। सभी नशे में धुत थे। मेरा मन बहुत घबरा रहा था। वही हुआ जिसका डर था, सभी ने मुझें खूब नोच-नोच कर अधमरा कर डाला। किसी तरह जान बचाकर भाग निकली। पर कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। कहां जाऊं, क्योंकि यहाँ रहीं तो रोज-रोज यही सब सहना होगा? काश तुम मान जाती माँ।

वह नदी किनारे बैठकर अतीत के सुखद पलों को याद करने लगी। वह सुमित को कितना पसंद करती थी।दोनों एक-दूसरे के  साथ खुश रहते थे।वह मन का बड़ा भोला था। पर मेरे लिए सब कुछ था। दोनों इकट्ठे पढ़ने जाते थे। उसका पूरा परिवार मुझें पसंद करता था।वो कितने प्यारे दिन थे? हम नदी किनारे घंटों बैठे रहते थे। भविष्य के सुनहरे सपने बुनते रहते थे।वह एक सच्चा इंसान था। उसका मन छोटी-छोटी बातों पर भर आता था। किसी का दुख देख कर उसकी आँखें नम हो जाती थीं। वह किसी को पीड़ा देने की सोच भी नहीं सकता था? उसके साथ बिताए दो साल किसी सुंदर सपने की तरह थे। उसने दो वर्षों में मुझें एक बार भी नहीं छुआ था। कभी भी अपनी सीमा पार नहीं की थी।

घर में उसका आना-जाना था। मन में  हमेशा डर लगा रहता था, अगर परिवार में किसी मेरे प्रेम के बारे में पता चल गया तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी।  हमारे प्यार का क्या होगा? पर भाभी की आंखों में मैं हमेशा से चुभती थी। उन्होंने इस मौके का पूरा फायदा उठाया।मैं उनकी मीठी-मीठी में आ गई।मैंने उनको अपना हमदर्द समझा,इसी बात का भाभी ने फायदा उठाया। उसके बाद वह मेरी दुश्मन बन गई। उसने माँ के कान भरने शुरू कर दिए। मेरे खिलाफ पूरे परिवार को खूब भड़काया। जल्दी ही वह अपने मकसद में कामयाब हो गई।

मेरी शादी झटपट कर दी गई।सुमित गाँव छोड़कर चला गया।बस अब मैं जी के क्या करूंगी?वह नदी में कूद गई, पर उसे मौत ने भी स्वीकार नहीं किया। किसी भले- मानस ने उसे बचा लिया। घर में खबर पहुँच गई। सभी को रमेश की इस करतूत का पता चल गया। पर कुछ नहीं हुआ। सभी कुछ मेरे खिलाफ रहा।माँ फिर समझाने लगी, जो हो गया उसे भूल जाओ। रमेश बुरा नहीं है। किसी ने कुछ करवाया दिया है, दामाद जी को।वह चिल्ला उठी,माँ तुम्हें आज भी लग रहा है, वही सही है। वह लंबी-लंबी सांसे ले रही थी। उसके आखिरी शब्द यहीं थे।" काश तुम मान जाती माँ---" कहते-कहते उसकी साँसे थम गई।

राकेश कुमार तगाला

1006/13 ए, महावीर कॉलोनी

पानीपत-132103 ( हरियाणा)