फिर से प्रकृति का प्रकोप देखने को मिल रहा है | आने वाले समय में ये प्रकोप और अधिक विकराल हो सकता है | सब जानते हैं कि उसका क्रोधित होना अकारण भी नहीं है | आज जो पहाड़ दरक रहे हैं क्या उसमें हमारी भूमिका नही है ? विकास के नाम पर जब चाहा, जहाँ से चाहा, जिसे चाहा उसी पहाड़ को काट डाला | कितने हजारों-लाखों वर्ष लगें होंगें पृथ्वी को अपने सभी संरचनाओं को संतुलित रूप देने में ? लेकिन हम इन संरचनाओं को अपना मनचाहा स्वरुप देना चाहते हैं | पहाड़ों को समतल कर देना चाहते हैं लेकिन ये नहीं सोचते कि फिर गलेशियर कैसे जिन्दा बचेंगें | चाहते हैं कि नदियाँ छोटी से बंधक धारा बनकर रह जाये और अपने चलने-फिरने , खेलने-कूदने और अंगडाई लेने की सारी जगह हमें सौंप दें | जिसमे हम कंक्रीट के जंगल उगा सके | वन तो खैर अब हमने इतने छोड़े ही नहीं |
खारे समुद्र से शुद्ध जल को उड़ाकर समूची धरती पर बरसा कर सब जीव-जन्तुओं को जीवन दान देना और ऊँचे पहाड़ों पर भी शुद्ध जल का भण्डारण गलेशियर के रूप में कर देना ताकि हमे निरन्तर जीवनदायी जल मिलता रहे, यह व्यवस्था केवल प्रकृति ही कर सकती है | हम मनुष्यों की इतनी सामर्थ्य नही कि इतनी विशाल जलचक्र प्रणाली को स्थापित कर सकें | लेकिन प्रकृति का उपकार मानने की बजाय हम उस व्यवस्था को ही बिगाड़ने में लगे रहते हैं जो अस्तित्व को बनाये रखे हुए है | पहाड़ों पर घूमने जायेंगें तो जम कर प्लास्टिक और पन्नी बिखेरकर आयेगें | पानी पीयेंगें और शान से खाली बोतल को वहीं पर इधर-उधर फेंक देंगें |
सभी को सुधारना होगा और वो भी बिना दूसरे के सुधरने की प्रतीक्षा किये | नहीं सुधरेंगें तो अपना ही अस्तित्व खो बैठेंगें किसी दिन |
-जय कुमार