मैं नहीं धृतराष्ट्र का प्रिय पुत्र दुर्योधन,
जिसे सब कुछ मिला था जन्म से ही।
मैं नहीं गुरु द्रोण का प्रिय शिष्य अर्जुन,
जो रहा प्रभु स्नेह का भाजन सदा ही।
मैं नहीं अभिमन्यु, जिसने पा लिया था
ज्ञान का भंडार माँ के गर्भ में ही।
मैं नहीं वह सूर्य का सुत कर्ण, जो जन्मा जगत में
ले सुरक्षा का कवच ही।
प्रश्न है फिर कौन हूँ मैं?
मैं वही हूँ दीन, सुविधाहीन वनवासी धनुर्धर
जो न था इस योग्य, उसको
कोई भूमि से उठाता और सीने से लगाता,
कुछ बताता, कुछ सिखाता
किंतु मैंने प्राप्त कर ली जब निपुणता
निज जतन से, प्राणपण से,
यह व्यवस्था आ गई मुझको सताने, यह बताने
दी नहीं गुरुदक्षिणा मैंने अभी तक।
यह व्यवस्था जो नहीं देती कभी कुछ,
किंतु तत्पर है हमेशा छीनने को।
यह व्यवस्था जो नहीं प्रतिभा परखती,
यह व्यवस्था जो सदा सम्पन्नता के साथ रहती।
यह व्यवस्था जो दिखाती स्वप्न झूठा
और जैसे ही मिले अवसर, कपट से
माँग लेती है अंगूठा।
यह व्यवस्था दे, न दे वह मान मुझको
सिद्ध है जिस पर मेरा हक़,
पर लिखेगा काल जब अपनी कहानी
और सबके काम का लेखा करेगा।
इन सभी योद्धाओं का गुणगान करके
पृष्ठ कितने ही भरेगा।
पर वही पहचान कर सामर्थ्य मेरी,
देखकर मेरी कुशलता,
एक पल को तो रुकेगा
और अपनी पोथियों में
एक पन्ने पर कहीं तो
ज़िक्र मेरा भी करेगा, नाम मेरा भी लिखेगा
नाम मेरा भी लिखेगा, ज़िक्र मेरा भी करेगा।
बृज राज किशोर ‘राहगीर’
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड
मेरठ, उत्तर प्रदेश