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कोई सरहद खींच दो

 उस गाँव की कच्ची पगडंडियाँ,

अब पक्की सड़क बनती जा रही है

रिश्ते पगडंडियों से कच्चे हो रहे

दूरियाँ शहर के रास्ते बड़ती जा रही है।

 

कच्चे मकान की दीवारों के अंदर

कोई अकेला सिसकियाँ लेता है

बेटा माँ को छोड़ गया, शहर को

माँ का दिल बेटे की याद में रोता है।

 

शहर से उड़ा धुआँ गाँव से कहता

सुनो, शहर बड़ा रंगीन होता है

सड़क गाँव से सीधी शहर को जाती

शहर से लौटना मुश्किल होता है।

 

गाँव से कहीं बेटे चले गये शहर

शहर की चकाचौंध को चाहने

पिता घर के अंधेरे में डूब गया

शहर की बेरुखी पिता क्या जाने?

 

खण्ड़रों की सभ्यता बन रहे गाँव

कोई सरहद गाँव से शहर की खींच दो

शहर अपनी चकाचौंध में आबाद रहे

गाँव को भी अपनी सरहद में जिन्दा रहने दो।

अनिल कुमार

        वरिष्ठ अध्यापक हिन्दी

   ग्राम देई, जिला बूंदी, राजस्थान