न जाने किस डाल पर बैठेगा,
उड़ेगा चुग्गा लेकर फिर,
न जाने कहाँ शाम बिताएगा!
कोई पंक्षी गगनांचल में,
कोई धरती पर ठहरता है,
कोई पंक्षी रात्रि जागकर,
दिन भर सोता रहता है!
इसी तरह उड़ता पंक्षी सा,
जीवन है मानव का,
स्वच्छ नीर, फलदार वृक्ष,
आश्रय उड़ते पंक्षी का!
मानव तो चाहे समझे कुछ,
अपने आपको ठहर गया,
फिर भी गहराई से समझे,
उड़ते पंक्षी सा उड़ता गया!
अब नींद, प्यास, भूखा रहना भी,
मानव सब कुछ सहता है,
उड़ता पंक्षी तो गगन में,
स्वच्छन्द बिचरता रहता है!
मानव के दुश्मन बहुतेरे,
काम, क्रोध, तृष्णा, लोभ चितेरे,
उड़ते पंक्षी के जैसे दुश्मन,
बाज, बहेलिया, प्रकृति आपदा बहुतेरे!
सतीश "बब्बा"
सतीश चन्द्र मिश्र, कोबरा,
चित्रकूट, उत्तर - प्रदेश,