हिंदू कहते मुस्लिम हूं मैं
मुस्लिम कहते हिंदू हूं मैं
धर्म की रस्साकसी में
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
कभी मंदिर जाकर चंदन टीका लगाता हूं
कभी मस्जिद जाकर काबे रुख़ शीश झुकाता हूं
गुरुद्वारा में गुरुबाणी, चर्च में बाईबल पढ़ता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
मजारों की शिरनी, देवालय की प्रसादी
छठ के घाट, मुहर्रम की लाठी
इन सबको स्वीकार करता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
जब होता है किसी नारी से दुराचार
हत्या, बलात्कार का सुनता हूं समाचार
बिन जाने उसका धर्म क्रोधित हो जाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
जब बाढ़ पीड़ितों की भुखमरी देखता हूं
खुले आसमान में बेबस सोते देखता हूं
मददगार की टोली में शामिल हो जाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
कहीं खेत जोतकर फसल उगाता हूं
कहीं बनकर हथौड़ा इमारत बनाता हूं
थामकर कलम बच्चों को पढ़ाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
किसानों की व्यथा रुलाती है हमें
मजदूरों की पीड़ा सताती है हमें
पुरानी पेंशन की मांग पर अड़ जाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
हक़-अधिकार की हर जंग में
विरोध-प्रतिरोध के हर तरंग में
मुट्ठी बांध हवा में हाथ को लहराता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।
मरुस्थल का आब हूं मैं
आंदोलनों का सैलाब हूं मैं
इक मुकम्मल इंक़लाब हूं मैं
फिर भी लोग पुछते कौन हूं मैं।
एम.जेड.एफ कबीर