एक स्वस्थ मनुष्य के लिए जिस प्रकार सम्यक जागरण और सम्यक शयन आवश्यक है , उसी प्रकार सम्यक प्रेम भी आवश्यक है । प्रकृति के कण-कण में प्रेम समाहित है। प्रेम की ऊर्जा से ही प्रकृति निरंतर पल्लवित, पुष्पित और फलित होती है। प्रेम की अनुभूति अपने-आप में विरल , अद्वितीय और बेजोड़ होती है । किसी से प्रेम करना या प्रेम में होना दुनिया का सबसे खूबसूरत एहसास है। साथ ही यह भी सत्य है कि जहां बहुत प्रेम होता है, वहां अरुचि भी होती है। यह मानव स्वभाव है जिसके साथ प्रेम हो पर वह बीमार हो ,तब उसके साथ ही ऊब होने लगती है। प्रेम वह सत्य है, जो सब कुछ असत्य होने का परिचय देता है । प्रेम अपनी खूबियों पर झांकने का मौका देता है , तो अपनी कमियों पर रुसवा भी करवाता है। मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थों में सुख समझकर प्रेम करता हैं, इन रमणीय विषयों में उन्हें जो सुख की प्रतीति होती है, वह प्रेम की प्रतीति केवल भ्रांति है। मनुष्य को अपना जीवन अत्यधिक प्रिय है क्योंकि जीवन की रक्षा के लिए मनुष्य स्त्री, पुत्र, धन आदि संपूर्ण पदार्थों का भी त्याग कर सकता है।कोरोना काल में तो यह सहजता से दृष्टिगोचर हुआ। विशेष रूप से कष्ट की प्राप्ति होने पर जब उसका जीवन दुःखमय हो जाता है, तब वह सारे प्रेम के तत्व भूल जाता है। इसी संदर्भ में संभवतः खलील जिब्रान का उपयुक्त कथन कि “प्रेम दो प्रेमियों के बीच पारदर्शी पर्दा है।” , यह बतलाता है कि प्रेम में दो प्रेमियों के बीच सभी विषयों में पारदर्शिता के साथ-साथ तार्किकता, भेद और सीमितता भी होती है। इस कारण इनके बीच एक पारदर्शी पर्दा होता है।
व्यक्ति जिससे प्रेम करता है, तो उसकी अपेक्षा होती है कि उसके अलावा अन्य कोई भी अपने मन में उस प्रेमी/ प्रेयसी के लिए प्रेम ना रखें। स्पष्ट है कि एक व्यक्ति जिस व्यक्ति से प्रेम भाव रखता है, उसी व्यक्ति से प्रेम करने वाले दूसरे प्रेमी या प्रेयसी से घृणा का भाव भी रखता है। स्पष्ट है कि प्रेम के साथ-साथ घृणा का भाव भी छुपा होता है। यदि प्रेमी किसी दूसरे से प्रेम का भाव प्रकट करता है तो उसके साथ ही प्रेम का भाव तिरोहित हो कर घृणा में तब्दील हो जाता है। इसलिए विद्वान वायरन का यह कथन प्रासंगिक है कि ” मनुष्य प्रेम तो जल्दबाजी में करता है, पर घृणा फुर्सत में।“ मनुष्य मोह-भंग की विश्रृंखला से जब गुजरता है , तब उसे यथार्थता की तलाश होती है ।
प्रेम की तुलना स्वप्न से की जाती है क्योंकि स्वप्न में मनुष्य चेतना-रहित होता है। उसे इस बात की जानकारी नहीं होती कि आखिर वह कर क्या रहा है?,परंतु जब वह स्वप्न से जागता है, तब उसे एहसास होता है कि उसने स्वप्न में क्या-क्या देखा और क्या-क्या किया ? स्वप्न की भांति ही प्रेम भी होता है क्योंकि जब कोई व्यक्ति प्रेम कर रहा होता है, तब उसे अच्छाई- बुराई, सत्य- सत्य और भूत-भविष्य की चिंता नहीं होती । वह तो अपने प्रेम में मगन रहता है । मनुष्य जब लगातार किसी के संपर्क में रहता है और उसके चरित्र के विभिन्न पक्षों को निकटता से देखता है, तभी उसके मन में घृणा पनपती है । घृणा प्रेम का ही जागृत रूप है यानी यदि प्रेम स्वप्न है, तो घृणा जागरण है।
प्रेम का तत्व परम रहस्यमय है। प्रेम का विषय इतना गहन और कल्पनातीत है कि उसकी तह तक विज्ञानी और ज्ञानी भी नहीं पहुंच सकते। अंतःकरण में जब प्रेम-रस की बात आती है, तब मनुष्य के संपूर्ण अंग पुलकित होते हैं, हृदय प्रफुल्लित हो जाता है,वाणी रुक जाती है। भले ही प्रेम की व्याख्या असंभव है पर इसमें जीवन छुपा है। जीने की चाहत छुपी है। कभी डर, तो कभी निडरता छुपी है । कभी बहुत प्रेम, तो कभी घृणा छुपी है । प्रेम को समझते-समझते जिंदगी को
मनोविज्ञानी रॉबर्ट स्टर्न्वर्ग ने प्रेम के त्रिभुजाकार सिद्धांत को सूत्रबद्ध किया है। उन्होंने तर्क दिया कि प्रेम के तीन प्रकार के निम्न घटक हैं-- आत्मीयता ,प्रतिबद्धता और जोश । आत्मीयता वह तत्व है जिसमें दो मनुष्य अपने आत्मविश्वास और अपनी जिंदगी के व्यक्तिगत विवरण को बांटते हैं। यह ज्यादातर दोस्ती और रोमानी कार्य में देखने को मिलता है । प्रतिबद्धता एक उम्मीद है कि यह रिश्ता हमेशा के लिए कायम रहेगा । आखिर में यौन आकर्षण और जोश है। प्रेम जो यौन आकर्षण से मिलता है, वह क्षणिक होता है क्योंकि वह प्रेम सम्मोहन की वजह से होता है। इसमें आकर्षण जल्दी ही भंग हो जाता है । यह प्रेम धीरे-धीरे कम होने लगता है और भय अनिश्चितता, असुरक्षा और उदासी लाता है।
“प्रेम ही ह्रदय बसे ,प्रेम कहिए सोए” अर्थात सच्चा प्रेम कम या ज्यादा नहीं होता। सत्य प्रेम बिना मिलावट वाला होता है। उसे सत्यप्रेमी में विषय नहीं होता, लोभ नहीं होता ,मान नहीं होता । जैसे पतंगा दीये के पीछे पड़ कर होम हो जाता है, खुद की जिंदगी को खत्म कर डालता है । अहंकार और ममता गए बिना सच्चा प्रेम नहीं होता। सच्चा प्रेम वीतरागता से उत्पन्न होने वाली वस्तु है । प्रेम में सुरक्षा होती है, संकुचितता नहीं । सच्चाई तो यह है कि प्रेम कभी भी और इस दुनिया में पाई जाने वाली किसी भी चीज के साथ हो सकता है, फिर चाहे वह चीज जीव हो या निर्जीव। पपीहे के प्रेम की भांति प्रेम का अटूट नियम और एक निष्ठभक्ति होनी चाहिए । पपीहा अत्यंत प्यासा होने पर भी जमीन पर पड़े हुए जल को कभी नहीं पीता ,आकाश में बादलों की ओर देख- देख कर पीहु -पीहु करता रहता है। यदि बादल ओले भी बरसाता है और उससे उसके पंख भी टूट जाते हैं तो भी वह वर्षा के जल के लिए व्याकुल हुआ बादल की ओर ही ताकता रहता है । उसे अपने पंख टूटने की भी परवाह नहीं होती ।
परन्तु इसके साथ ही प्रेम का एक सामाजिक दर्शन और आचार क्षेत्र भी है , जो इसके सामाजिक मूल्य तथा दो प्रेमियों की स्वायत्तता पर पड़ने वाले प्रभाव इत्यादि विषयों पर गौर करता है। सांसारिक प्रेम सागर के जैसा है , परंतु सागर की भी सतह होती है,अर्थात इसकी सीमा होती है। इसलिए कबीरदास एक साखी में कहते हैं “ प्रेम गली अति सांकरी, या में दूई ना समाय।“ परंतु दिव्य प्रेम आकाश के जैसा है ,जिसकी कोई सीमा नहीं है।
प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक विभिन्न धर्म सुधारकों ने जो उपदेश दिए हैं , उन सब का आधार प्रेम भावना है । प्रेम के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । कहा जाता है कि जब तक मनुष्य के भीतर कोई इच्छा जीवित है , तभी तक वह जिंदा रहता है। यह किसी सीमित क्षेत्र में नहीं होता है । मनुष्य प्रकृति से प्रेम करता है, अज्ञात ईश्वर से प्रेम करता है। प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है । इसलिए तो मीरा जैसी प्रेमिका कहती है कि
“कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खाइयो मांस।
दो नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।“
अर्थात मिलन का कोई आस भी नहीं, बस प्रियतम की एक झलक की आस है।
धर्म और नीतिशास्त्र चाहे प्रेम की राह में लोभ, लालच की भले ही रंच मात्र भी जगह नहीं देखते हों, मगर भाषाशास्त्रके चौड़े रास्ते पर जब शब्दों का सफर शुरू होता है तो प्रेम का समानार्थी शब्द यानी लव संस्कृत शब्द के लभ् से ही व्युत्पन्न प्रतीत होता है। यह शब्द हिंदी के लोभ, लालच, लालसा और लोलुपता जैसे विपरीतार्थी लफ्ज़ से मिलता जुलता नजर आता है। जाहिर है कि प्रेम में यह तमाम क्रियाएं रिझाना, फुसलाना, आकृष्ट करना आदि शामिल है। इसने “लव” के रूप में भले ही अपनी जगह बनाई जिसने प्रेम, स्नेह, लगाव और मैत्री भाव जैसे व्यापक अर्थ भी ग्रहण किए। जाहिर है कि भाषा विज्ञान के आईने में कबीर का यह दोहा ज्यादा प्रासंगिक दिखता है कि
” कबीरा धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
जोड़े से भी ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।“
अर्थात मन की गांठ भी इन्हीं विचारों का जमाव है, जो ग्रंथि के रूप में हमारे व्यवहार में नजर आता है।संसार भर के संत और धर्मग्रंथ एक बात खास तौर पर कहते हैं कि प्रेम से बड़ी कोई नीति नहीं । लेकिन लोभ लालसा छोड़कर ही प्रेममार्गी हुआ जा सकता है अर्थात लालच और प्रेम साथ-साथ नहीं चल सकते । हिंदी के मशहूर कवि गीतकार कुंवर बेचैन भी अपने एक कविता में यह कहते नजर आते हैं-
“जहां काम है ,लोभ है और मोह की मार।
वहां भला कैसे रहे, निर्मल पावन प्यार।"
निष्कर्षतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज यांत्रिकता और निरंकुश आर्थिक ग्लोबलाइजेशन में पिसता हुआ मनुष्य अपने तमाम वर्तमान मधुर संबंधों से कटकर अकेला हो गया है । प्रेम शब्द उसके लिए इतना अधिक उल्टा -पुल्टा हो गया है कि पग-पग पर यह प्रश्न हुआ करता है कि क्या इसे ही प्रेम कहते हैं? जब उसे प्रेम में धोखा मिलता है या इसकी सीमितता का पता चलता है, तो पूरी दुनिया बेमानी लगती है। पर हम जानते हैं कि सांसारिक प्रेम से विमुख होकर ही महान कवि तुलसीदास जी ने अमर कृतियों की रचना की । अतःदो प्रेमियों के बीच प्रेम का पारदर्शी पर्दा सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन में वास्तविकता से रूबरू कराकर हमें इनमें भेद करना भी सिखाता है।
प्रभाष पाठक,
अवर सांख्यिकी पदाधिकारी, योजना एवं विकास विभाग,
पुराना सचिवालय,
पटना-800015, बिहार