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मन का कोना

 रास्तों से भटक कर

मैं खो गया भीड़ में

टटोलने लगा मन

कहाँ आ गया हूँ मैं

बोझ से लगने लगे

टूटते से ताने बाने

बुनने लगा हूँ

कोई टूटीफूटी शक्ल

अंगुलियाँ रूक जाती हैं

खुरदरी सतह पर

जो चिकनी थी कभी !

सलाईयाँ गिर जाती हैं

काँपतें हाथों से

पीला सा पत्ता

आता है उड़ता हुआ

छोड़ अपनी डाल

खो जायेगा यहीं कहीं

रौंद दिया जायेगा

बढ़ती भीड़ की बैचेनी

फुर्सत कहाँ है

सोचने समझने की

उदासियों के अक्षर

उतारे नहीं जाते

कागज पर

मन का कोना खाली है

वहीं लिख दूं कुछ

शनैः शनैः ढ़लती शाम

अंधियारों की थाप

दुबकती है बंद किवाड़ों में

देह की ढिबरी

मंद लौ थरथराती सी

परछाईयों के चित्र

कुछ और ही बनाती है

सूनी दीवारों पर

पढ़ने की कोशिश में

उदास है

मन का कोना

वी पी दिलेन्द्र

111 / 436  शिप्रा पथ

अग्रवाल फार्म , मानसरोवर 

जयपुर, राजस्थान