अंग पीड़ा देरहा था। धरती के कटे पेड़, उजड़े पहाड़ - पहाड़ी । गाँव के पास की बहने वाली, सूखी नदी, उजड़े बाग - बगीचे, बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन!
जुते खेतों में सूखे खरपतवार, यदा - कदा, कहीं - कहीं महुआ - आम, नीम के पेड़ अपनी बेचारगी दर्शाते से और पहाड़ - पहाड़ी में कहीं - कहीं बचे झाड़ - झाड़ियों की तरह ए बादल बिचरण कर रहे थे। मेरे घर की बिगड़ी शांति की तरह।
सामने कोलतार की सड़क में निकलते वाहनों की आवाज और पास में पड़ी पत्नी का उलाहना पाकर और उसके बहते आँसू ! वह कह रही थी कि, "क्यों मुझे कर्ज लेकर बीमारी से क्यों बचाया!" हालांकि वह अभी पूर्ण रूप से ठीक नहीं हुई है, दवा अभी चलती है। लेकिन उलाहना देकर उसके बहते आँसू किसी भी पति के हृदय को विदीर्ण करने में सक्षम हैं।
एक मैं हूँ जो, पता नहीं किस मिट्टी से ब्रह्मा ने बनाया है मुझे कि, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। पत्नी को कोमा में देखकर रोया था, फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी का हार्ड फेल हो जाता है, देखता और सुनता हूँ। लेकिन मेरा दिल इतना मजबूत कंपनी से बंधवाया गया है ब्रह्मा के द्वारा कि, कोई फर्क नहीं पड़ता और मौत की जम्हाई तक नहीं आती। मेरे अंतर्मन से आवाज आती है कि, "क्यों जी रहा हूँ मैं?" मैं खुद नहीं जानता! बेटे यही कहते हैं कि, "ऐसे बाप को हम नहीं चाहते कि, वह रहा आए!"
फिर भी मैं हूँ, क्योंकि मेरी हमसफर, मेरी अर्धांगिनी है। मैं तो उसके लिए हूँ, शायद इस रहस्य को मेरी पत्नी भी नहीं जानती। और जानती भी है तो वह प्रकट होने नहीं देना चाहती।
मेरे बेटियाँ हैं नहीं, पता नहीं अगर वह होती तो क्या करती? जब तक मेरे पास पैसे हुआ करते थे, सभी को मुझसे प्यार हुआ करता था। क्या बहुएँ, क्या बेटे और सरहजें, क्या साथी और संगती! एक पोता जो पिता बिहीन, मुझमें ही सब कुछ देखता है, बेचारगी से पूर्ण, मेरी आस लगाए, टुकुर - टुकुर मेरी ओर निहारता है। वह क्या कहे, शायद मेरी मजबूरी को जानता है। तभी तो प्राइवेट स्कूल से उसे सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए डाल दिया है, तो भी वह चुपचाप वही किया जो मैंने कहा!
मेरे जीवन, साँसों की डोर इतनी मजबूत है कि, उसे देखकर भी मैं निरोग हूँ। कभी मेरे सीने में पीड़ा नहीं उठती। मेरे बगल में पड़ी मेरी बीमार पत्नी, जब कोई पुराना गाना गाती है, "मेरा जीना, मेरा मरना...... दुनिया में क्या रख्खा है?" और "तेरी दुनिया को हम छोड़ चले, होके मजबूर चले...!"
दूसरे का हृदय द्रवित हो जाता है। और मेरी आँखों से सिर्फ चंद बूँद आँसू गिरते हैं बस! शायद अब आँसू भी सूख गए
मैं जानता हूँ, अभी हमारा छोटा लड़का, मुझे भी बचाने की पूरी कोशिश करेगा, अपने दम तक, क्योंकि अभी उसकी शादी नहीं हुई है।
मैं यह भी जानता हूँ कि, सभी लड़कों में छोटा लड़का योग्य है और सभी से ज्यादा पढ़ा - लिखा भी है। मेहनती है और पैसा कमाने के हुनर हैं उसके। लेकिन अब लड़कियों की कमी है। शहर में होता तो शायद कोई अपनी लड़की दे भी देता। लेकिन माँ की सेवा के कार्य में, वह भी गाँव के इस अभाव के नरक में सड़ रहा है।
अब तो मेरे मुँह से कोई गीत निकलता नहीं है और अब रोना भी नहीं हो पाता है, आँसू भी सूख गए हैं। मैं कटे, उजड़े हुए, बियाबान जंगल, पहाड़ के ठूँठ की तरह अडिग खड़ा हूँ। जिस पर पहले तो किसी की नजर पड़ती नहीं, अगर पड़ी भी तो, कुकाठ जानकर, फिर कठिन, बेकाम की लकड़ी को देखकर, आँखें फेरकर चले जाते हैं।
पूर्वी हवा, पश्चिमी हवा, दक्षिणी हवा और उत्तरी हवा, ठण्ड, गरम, बरखा सभी सहन करता अकेला मैं, रो भी नहीं पाता और हँसना तो तकदीर में लिखा ही नहीं है।
गंधाता, तुलसा की तरह यह, निर्दयी समाज, निर्दयी औलाद सिर्फ पीड़ा, दुख पहुंचा रही है। सुख का दूर - दूर तक नामों निशान तक नहीं है। अब तो कोई टोकने वाला भी नहीं है। वही थकी, बीमार पत्नी की कराहती बातें हैं। अब इस जीवन के उजड़े पहाड़, जंगल में कोई सुख रूपी सियार तक नहीं बोलता!
मेरा जीवन भी उन तड़पते जानवर, जीव - जंतुओं की तरह है जो, बरसात में टूटे बादल की तरह, सूर्य के ताप को रोक नहीं पा रहे और अभी आर्द्रा के बाद, पुनर्वसु नक्षत्र में भी मृगशिरा के सूर्य के ताप की तरह आग उगल रहे हैं। और धरती आग की तरह तपने लगती है।
सूखे की स्थिति पैदा हो गई है, प्रकृति में और मेरे जीवन में भी।
"मुझे क्यों जिन्दा किया कर्ज लेकर तुमने?" पत्नी की करूण आवाज से मेरी तंद्रा जरूर भंग होती है, फिर भी मेरे आस - पास, अगल - बगल, दूर - दूर तक कहीं भी मेरी मौत नजर नहीं आ रही है।
मैं भी कितना अभागा हूँ, जीवन में कोई भी इच्छा नहीं पूरी हुई। अब मरने की भी इच्छा पूर्ती के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
सतीश "बब्बा"
चित्रकूट, उत्तर- प्रदेश