परोपकार

अरुणिता
द्वारा -
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 मानव मूल्यों में सर्वोपरि गुण  


           मनुष्य का विकास समाज में रहकर सम्भव है। समाज के  बिना मनुष्य पशुवत् है। पशुओं की अपेक्षा मनुष्य विवेकशीलता से परिपूर्ण प्राणी हैं। उसे अच्छे-बुरे का मान होता है। यह म तभी सम्भव है, जब मनुष्य समाज के व्यक्तियों के सम्पर्क में रहता है। मनुष्य का सर्वोपरि गुण है- परोपकार

परोपकार अर्थात् पर + उपकार ( दूसरों की भलाई करना) । यह गुण मनुष्य का सर्वोपरि नैतिक गुण है। यदि मनुष्य यह सोचे कि वह दूसरों की भलाई के कार्य नहीं करेगा तो आन्तरिक रूप से उसका आत्मिक हनन होता है।

मेरे विचार से प्रकृति मानव-जाति के लिए साक्षात् शुरु होती है। ● प्रकृति की विभिन्न वस्तुओं में कोई भी किसी प्रकार का स्वार्थ निहित नहीं होता है। परोपकार के साथ-साथ प्रकृति में अनुशासन भी सम्मिलित होता है। परन्तु मनुष्य नित-प्रतिदिन प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता रहता है जिससे प्रकृति का रौद्र रूप भी देखने को मिलता है।

सोचकर देखिए, क्या नदियाँ स्वयं अपना पानी पीती है? वे तो नित्य निष्काम भाव से मनुष्य एवं जीव-जन्तुओं को ही पीने के लिए पानी देती है। पेड़ खुद अपने फल नहीं खाते, मनुष्य ही उनके फलों का रस चखता है। किम् बहुना, पेड़ अपनी छाया में सभी प्राणियों को विश्राम करवाते हैं। अनुशासन की सीमा में रहकर सूर्य रोजाना सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशमय किए रखता है। समय पर सूर्य उदय होता है और समय पर ही अस्त हो जाया करता है। चन्द्रमा अपनी चाँदनी से सभी को आनन्दित करता है। ऋतुएँ भी समयानुसार आती है जिससे मनुष्य-जीवन प्रभावित होता है। प्रकृति कभी अपने ऊपर किसी भी चीज का प्रयोग नहीं करती है।तो फिर मनुष्य की इतनी छोटी सोच क्यों है? क्या मनुष्य का । मानसिक एवं आत्मिक विकास परोपकार के बिना सम्भव है बिल्कुल नहीं। कदापि नहीं। जितने कष्ट -कंटकों में है, जिनका जीवन- सुमन मिला ।

गौरव-गंध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र - सर्वत्र मिला ॥ दूसरों की भलाई के कार्य करते समय लाख कष्टों का सामना करना पड़े, उससे अन्त में मानसिक शांन्ति मिलती है और सत्त्व गुण मी विकसित होता है। इस संसार में बहुत दीन-हीन मनुष्य हैं, जिन्हें दो वक्त भी रोटी नसीब नहीं हो पाती है। वे जीवित रहते हुए रोजाना भूखे पेट भरते हैं, क्या सक्षम मनुष्यों का यह कर्तव्य नहीं कि उनकी कुछ मदद कर सकें? यदि उनकी अन्तरात्मा जीवित होगी तो अवश्य करेंगे | छोटे-छोटेबच्चे अपना पेट पालने के लिए कारखानों, दुकानों, घरों में काम करते हैं। अमीरों की कारों के शीशे साफ करते हैं। खुद फटे-पुराने कपड़े पहने रखते हैं जबकि यह उनकी पढ़ने-लिखने की उम्र होती है। निर्धनता मनुष्य जाति के लिए अभिशाप है। मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी क्षमता के अनुसार बच्चों की मदद करे।

विद्यालय में शिक्षक भी परोपकार का ही कार्य करता है - बच्चों को शिक्षा देकर एवं उनका मानसिक विकास करके | शिक्षक का वेतन भी तभी फलित है, जब वह बच्चों को सही मार्ग पर ले जाते हुए पूर्ण निष्ठा से शिक्षण कार्य करे।

यह सम्पूर्ण धरती एवं इस पर रहने वाले सभी प्राणी हमारे है, यही भावना समस्त मानव जाति के अन्दर होनी चाहिए। मेरा-तेरा, अपना पराया की भावना का त्याग कर दें।

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

 रुचि शर्मा (सहायक अध्यापक)

कम्पोजिट स्कूल डुन्डखेड़ा

कांधला शामली (उत्तर प्रदेश)

 

 


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