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नारी ने कीमत चुकायी है

 


आजादी से आजादी तो बस वहसी दरिंदो ने ही  पायी  है

जिसकी कीमत भरें बाजारों चौराहो में नारी ने चुकायी है

 

तानों के बाणों को बचपन से बूढ़ी होने तक मैं तो झेली हूं

रहती रही सदा सबके बीचों में पर  अक्सर मैं  अकेली  हूं

सहमी सहमी सी डरी डरी सी जीकर भी मैं  मर जाती  हूं

लोग तो एक बार मरते है मैं रोज मरकर जी  ही  जाती हूं

मुक्तिधाम के चांडालों के चंगुल में जा मैं फस तो जाती हूं

कभी जलाते कभी बुझाते अधजली मैं कैसे मुक्ति पाती हूं

 

क्या आजादी के बाद से आजादी बस उन लोगों ने पायी है

बताओ क्या इनकी कीमत नारी ने बस ही क्यों चुकायी  है

 

 

सोमेश देवांगन

गोपीबंद पारा पंडरिया

कबीरधाम,  छतीसगढ़