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इश्क की इमारत

 


 -जिंदगी में एक बार ज़रूर मुझे वहां ले जाना है। क्या लेकर जाएंगे?

-कहां?

-इश्क की इमारत देखने।

-तो तू जाती कहां? वह यहां ही है न?

-क्या तमाशा मार रहे हैं?

-नहीं शारू मैं सच बता रहा हूं।

-मैं असल के प्रेम की इमारत देखना चाहती हूं, जिसे शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज़ के लिए बनवाया था।

-ओहो! वही है बात!

-वाकई मेरे विचार में प्यार वही है, जो जिंदा रहने पर दिखा दें। न  ऐसा कि मर मिटने के बाद कोई न कोई बड़ी इमारतें बनवाना और यह साबित करना कि मेरे अंदर प्रेम का उफान रहा था।

-क्यों ऐसे बकवास कर रहे हैं आप?

-तू क्या यही चाहती है कि हम में से किसी के मर मिटने के बाद दूसरों से यह सिद्ध करने की कोशिश करें कि हमें एक दूसरे से बेहद प्यार  था।

-नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं

शारदा बेबस होकर निरुत्तर होकर संजय की ओर देखती रही

-हां शारदा, मैं सच कहता हूं कि इस जिंदगी में जब तक हम रहें, ऐसा रहें कि एक दूसरे से प्यार करते रहें, जिस इमारत में हम रहते हैं, उसे इश्क की इमारत बना  दें।

शारदा के भावों में  जो रवानगी रही, जो दीवानगी रही, उसकी असलियत उसने पहचानी। उसने भावार्द्र् नयनों से अपने इश्क की इमारत की ओर ताकती रही कि वह जिंदगी में पहली बार उसे देख रही हो।

 

डॉ0 शीला गौरभि

  सह आचार्या-हिन्दी

यूनिवर्सिटी कॉलेज

तिरुवनन्तपुरम-695034

केरल