कविताएं बनाई नहीं जाती ,
बल्कि निकल आती हैं,
जैसे हिमालय के हृदय रूपी ग्लेशियर पिघलते हैं,
तो नदियों के रूप ले ,
धरा के अंत्स्थल को छू कर,
जीवन दायनी बनकर ,
वसुंधरा के जन वन जीवन का,
हर पल करती रहती उद्धार,
और अंत में सागर से मिलकर ,
देती अमर प्रेम का राग,
इसी तरह कविता का भी,
हृदय में होता है उदगार,
हृदय पिघलता है जब,
जन्में मन करुणा भाव,
तब बहती है कविता की धार,
मन के तुंग श्रृंग पर जब,
भाव जमे हो बर्फ की भांति,
प्रेम प्रकाश से पिघल रहा है,
करुणा रूपी कविता की धार,
अपने निर्मलता से धोती,
जन अंत्स्थल की मरू भूमि का भाग,
सुख दुःख की नई घटा की,
मानवता की नयी छटा की,
नित नव रचती मूल्यों का हार।
कविता जीवन के हर पहलू को छूती,
साहिल और सागर की लहरों की भांति,
मर्मो को आगे ले जाती रक्त और शिरा की भांति।
डॉ0 विवेक कुमार समदर्शी
राजकीय इंटर कालेज अर्जुनपुर गढ़ा
फतेहपुर