अक्सर मैंने देखा है, सड़कों के किनारे अन्न फेंका हुआ,
कुछ मिट्टी में था मिला और कुछ कचरे में था सना हुआ,
देख वैसा दृश्य, चावल का वह दाना मुझको याद आया,
जिस दाने ने वासुदेव की भूख को, पल भर में था मिटाया,
किंतु यहाँ न जाने कितने ही कान्हा हर रोज़ भूखे मरते हैं,
अन्न के एक दाने के लिए, लाखों गरीब कितना तरसते हैं,
रो रही थी कचरे में पड़े हुए, अन्न के उन दानों की आत्मा,
पूछ रहे थे वह भगवान से, यहाँ ये क्या हो रहा है परमात्मा,
मुझ पर किसानों ने कितना पसीना, तन से उनके था बहाया,
और फिर श्रमिकों ने मेरे तन को, साफ़ सुथरा भी था बनाया,
फिर यह कैसा ज़ुर्म हुआ, मेरा स्थान इस कचरे में कैसे आया,
भूखा बालक मेरे नज़दीक से रोते हुए जाता, क्यों मैंने पाया?
मैं असहाय आँसू बहा कर, उसे यूँ ही जाता देखता रह गया,
व्यथित हूँ भर सकता था पेट उसका, परन्तु मैं भर ना पाया,
होते अगर पाँव मेरे, तो मैं स्वयं उस तक अवश्य पहुँच जाता,
तब शायद कोई गरीब, भूखा तुम्हें कभी भी नहीं दिख पाता,
क्योंकि मैं इंसानों के फेंकने से पहले ही उस तक पहुँच जाता,
मेरा सपना है प्रभु, मेरे रहते कोई भी गरीब भूखा ना सो पाए,
परंतु टूट रहा है यह सपना मेरा, अब तुम्हीं करो कुछ उपाय,
या तो इंसानों को सद्बुद्धि दे दो, या मुझ को ही शक्ति दे दो,
कचरे में नहीं स्थान मेरा, हे प्रभु मुझको भी तुम दो पाँव दे दो,
रत्ना पाण्डेय
वडोदरा, गुजरात