स्वर्ण मृग

अरुणिता
द्वारा -
0

 

व्यथित अन्तर्मन की सेवित प्रति अभिव्यंजना है।

स्वर्ण मृग यथार्थ है प्रतिभास है या कल्पना है।।

क्षुधा तृप्ति,ढके तन, आश्रय तक सब सही था

स्वर्णबोध से पहले स्वर्ण था स्वर्ण मृग नहीं था।

ऐषणाओं के सघनघन मनस पर छाने लगे थे।

कनक मृग के कण तभी अस्तित्व में आने लगे थे।।

महत् आकांक्षाओं की संतृप्ति की संकल्पना है।।

 

सभ्य जीवन के विटप का अंकुरण होने लगा था।

स्वर्ण मृग अंगड़ाई लेकर हाथ मुंह धोने लगा था।

हिरण्यगर्भा जीव हिरण्याशक्त सा होने गया था।

स्वर्ण मृग की खोज में बहुयातना सहने लगा था।

यह अविद्या है निराशा है या मिथ्या कामना है।।

 

कनकवर्णी कामिनी को कनक अतिप्रिय हो गया।

अध्यास की बहुभीड़ में स्वज्ञान दीप खो गया।

यत्र तत्र सर्वत्र माया ने साम्राज्य बढ़ा लिया।

मुमुक्षित जीवात्म पर तृष्ना का रंग चढ़ा लिया।

सत्य के शास्वत कलेवर पर यह मिथ्या वर्णना है।।

 

लख चौरासी यात्रा स्वर्ण मृग ही तो करवाता है।

जीव को स्वरूप से बहुत दूर तक ले जाता है।

परम विभु श्री राम के द्वारा ही मारा जाता है।

राम को हृदयस्थ कर प्राणी परमपद पाता है।।

शेष तू भी मुक्त हो जा यह जगत अपवंचना है।।

  

शेषमणि शर्मा 'शेष'

प्रयागराज उत्तर प्रदेश

 

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn more
Ok, Go it!