शीत-ऋतू

अरुणिता
द्वारा -
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         जाड़े का मौसम यानि कि रजाई में दुबककर देर तक सोना, गरमागरम चाय की प्याली, धूप की गुनगुनाहट, गर्म पानी से नहाना और न जाने क्या- क्या...। हमारे लिए तो शीत ऋतु बहुत ही सुहावना होता है पर कभी ये भी सोचा है कि जाड़े के मौसम में जानवरों जैसे कि कुत्ते, बिल्लियों, गाय- बकरी इत्यादि को कितनी तकलीफ़ होती होगी?खैर, हम ये भी मान लेते हैं कि प्रकृति ने उन्हें हर मौसम के अनुकूल बनाया है पर ये कैसे भूल जाते हैं कि हमारे देश में ऐसे न जाने कितने लोग हैं जो मौसम की मार सहने को विवश हैं जिसका जिम्मेदार बहुत हद तक हम भी हैं।

मुझे भी सबकुछ सामान्य- सा लग रहा था पर रात के लगभग आठ बजे अपने घर में आग तापते हुए जब मैंने घर से सटे फार्म पर काम करने वाले बाप- बेटे की बातें सुनी तो अवाक् रह गई।वे दोनों ठिठुरते हुए मूली का बंडल बना रहे थे ताकि सुबह तड़के उन्हें ले जाकर बेच सके।दस- बारह साल का वो बच्चा अपने पिता से दबी हुई आवाज़ में कह रहा था- "बाबूजी, इस साल मुझे सस्ती वाली एक स्वेटर दिला दो न! मेरे दोस्त कहते हैं उसे पहनकर ठंड नहीं लगती।"

पिता ने जवाब दिया-"हाँ बेटा, इस साल फसल तो अच्छी हुई है पर इसकी कीमत भी अच्छी मिल जाए बस...।" उनकी बातों में चिंता साफ़ साफ़ झलक रही थी।

सच ही तो है कि उन तमाम मजदूरों और किसानों को उनके मेहनत का उचित दाम भी कहाँ मिल पाता है जबकि देश का विकास करने में उनका बहुत बड़ा हाथ होता है। न जाने क्यों हम ये भूल जाते हैं कि ये जो ऐशो आराम की जिंदगी हम बिता रहे हैं वो सिर्फ और सिर्फ उनकी बदौलत।वे हर मौसम की मार सहकर जी तोड़ मेहनत करते हैं और हम उनका सही दाम देना तो दूर, सीधे मुँह बात तक नहीं करते फिर चाहे वो सब्जी वाला हो, दूध वाला या अख़बार वाला। ये सिर्फ गलत ही नहीं बल्कि पाप है और हम सब जान बूझकर ये पाप कर रहे हैं।

खैर, चाहे जो भी हो पर उस मासूम बच्चे की बातें सुनकर मुझे बहुत गर्व भी हुआ कि ये सिर्फ भारत के ही बच्चे हो सकते हैं जिनमें शक्ति और सामर्थ्य के साथ साथ संस्कार भी कूट कूट कर भरा है जो अपनी आवश्यक वस्तुओं की माँग भी इस तरह से करते हैं कि कहीं माँ- बाप को कष्ट न हो।

अनिता सिंह

देवघर, झारखण्ड

 

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