छुटपन से ही वृंदा अपने घर परिवार में यह देखती आ रही थी कि उसकी अम्मा पिताजी के संग बड़े ही अदब से पेश आती हैं, उनका बहुत आदर करती है | बिना चूके पिताजी की सारी सुविधाओं का ख्याल रखती है | हर दिन नाश्ता, खाना समय पर लगाती है और खाना लगाने से पहले टेबल पर पानी से भरा ग्लास रखना कभी नहीं भूलती है | पूरी थाली हमेशा सजा कर ही उन्हें खाना परोसती हैं | जब तक पिता जी खाना नहीं खा लेते अम्मा भूखी ही रहती है फिर चाहे कितनी भी देर क्यों ना हो जाए | अम्मा का ऐसा करना वृंदा के समझ से परे था, वह कभी समझ ही नही पाई कि अम्मा का ऐसा करना पिताजी के प्रति अम्मा का प्यार है, सम्मान है, उनके घर की यह संस्कृति है या फिर कुछ और, क्योंकि पिताजी तो ऐसा कुछ भी नहीं करते थे जिससे इस बात की पुष्टि हो सके कि वे भी उसकी अम्मा से उतना ही प्रेम व सम्मान करते हैं जितना अम्मा करती हैं |
वक्त का पहिया घूम रहा था और वक्त से साथ बड़ी होती वृंदा के मन में भी कई सवाल उत्पन्न हो रहे थे, जिसका जवाब वृंदा ढूंढने का प्रयास कभी अपने घर के भीतर करती, तो कभी स्वयं के अन्तर्मन में तलाशती, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद उसके हाथ शून्य ही लगता | बड़ी होती वृंदा पत्र पत्रिकाओं और मीडिया के माध्यम से नारी सशक्तिकरण को भी समझने का प्रयास करती, जिससे वह केवल इतना ही समझ पाई कि समाज की आधी आबादी आज भी रीति रिवाजों और संस्कारों के नाम पर छली जा रही है और उनके पैरों में पड़ी ये बेड़ियां ही उन्हें आगे बढ़ने से रोक रही है | आज भी स्त्री-पुरुष, लड़का-लड़की केवल कहने मात्र के लिए बराबर है, असल जिंदगी में दोनों के मध्य ज़मीन आसमान का फर्क है एवं उनके बीच एक ऐसी खाई है जिसे भर पाना इतना आसान नहीं है |
वृंदा को अपनी अम्मा का अपने आत्मसम्मान के लिए कोई संघर्ष ना करना भी हैरान और परेशान करता |
उसके पिता जी कभी भी उसकी अम्मा को "आप" कह कर संबोधित नहीं किया करते थे | वह भी जब तक छोटी रही कभी भी अपनी अम्मा को "आप" कह कर नहीं पुकारती थी लेकिन ज्यों ज्यों वह बड़ी होने लगी आत्मसम्मान और सम्मान का अर्थ समझने लगी वह अपनी अम्मा को पहले से ज्यादा सम्मान तो देने लगी लेकिन उसके बावजूद उसके लबों पर कभी अपनी अम्मा के लिए "आप" शब्द नहीं आ पाता | जब भी वृंदा अपनी अम्मा को "आप" कहने का प्रयास करती, वह अपनी अम्मा से वो लगाव, जुड़ाव व अपनापन महसूस नही कर पाती जो वह "तुम" कह कर महसूस किया करती थी |
वृंदा अपनी अम्मा को घर पर सम्मान दिलाना चाहती थी, उसे लगता था घर की हर एक स्त्री को उसके हक का सम्मान तो मिलना ही चाहिए | वैसे वृंदा की अम्मा को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वृंदा के पिता जी उसे "तुम" कह कर संबोधित किया करते है और ना ही उसे ऐसा कभी लगा कि उसके संग कोई नाइंसाफी हो रही है या वृंदा के पिता जी उनका सम्मान नहीं करते है |
वृंदा अक्सर अपनी अम्मा से कहती-
" अम्मा पिताजी तो बिल्कुल भी तुम्हारी इज्ज़त नहीं करते, तुम्हें सम्मान भी नहीं देते, यहां तक कि पिताजी तुम्हें "आप" कह कर भी नहीं पुकारते क्या तुम्हें कभी गुस्सा नहीं आता |"
इस बात पर वृंदा की अम्मा मुस्कुरा देती और फिर घर के कामों में लग जाती | बीतते वक्त के साथ वृंदा के भीतर पुरुष वर्ग के प्रति विद्रोह की भावना पनपने लगी और साथ ही साथ रीति रिवाजों और संस्कारों को वह नारी सशक्तिकरण एवं उनकी आजादी में बाधक समझने लगी | वृंदा को इस प्रकार अर्धसत्य में उलझता व भ्रमित होता देख वृंदा की अम्मा के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई और उसने तय किया कि वह वृंदा को इस
एक दिन जब वृंदा बाहर से घर लौटी तो उसने देखा कि उसकी अम्मा खाना खा रही है और वह भी तब जब पिता जी दफ्तर से आए नहीं है | यह दृश्य देख वृंदा आश्चर्य चकित रह गई क्योंकि अम्मा तो पिताजी को खाना परोसे बगैर कभी भी खाना खाती नही है | वह झट से अपनी अम्मा के करीब जा बैठी बोली-
"अम्मा आज तो तुम्हें पिता जी से पहले खाना खा कर स्वतंत्रता का एहसास हो रहा होगा | तुम्हें ऐसा लग रहा होगा कि सालों से तुम्हारे पैरों पर बंधी रीति रिवाजों और संस्कारों की बेड़ियां आज टूट गई है | यह तो तुम्हारी आजादी की शुरुआत है, तुम उस दिन पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो जाओगी, जिस दिन तुम अपने मन मुताबिक जी पाओगी और पिता जी तुम्हें इज्ज़त से "आप" कह कर पुकारेंगे |"
वृंदा की अम्मा कोई जवाब दिए बग़ैर मुस्कुराती हुई जीमती रही फिर उसके बाद वृंदा की हथेलियों को अपने हाथों में लेती हुई बोली-
"बेटा ऐसा है कि मैं तो शुरू से ही स्वतंत्र हूं, मैं कभी किसी बंधन में नहीं रही | तुम्हारे पिताजी ने कभी मुझ पर कोई बंदिशें नहीं डाली और यदि ऐसा कुछ होता तो मैं उन बंदिशों को कब का तोड़ चुकी होती | रही बात हमारे रीति रिवाजों और संस्कारों की तो ये कभी भी नारी स्वतंत्रता व उन्नति में बाधक नहीं रहे हैं | हां ऐसी कुछ प्रथाएं जरूर थी और है जो नारी विरोधी है, जो नारी की स्वतंत्रता, उनकी उन्नति व उनके मान के खिलाफ है जिसका मैं पुरजोर विरोध करती हूं और हर नारी को करना चाहिए |"
आज वृंदा अपनी अम्मा को बिना रुके अविरल धारा प्रवाह बोलता देख भौंचक्की थी | उसने आज तक कभी अपनी अम्मा को इस तरह बोलते ना देखा था और ना ही सुना था | आज वह अपनी अम्मा का एक सशक्त रूप देख रही थी |
आगे अम्मा बोली "यहां मैं तुम्हें एक और बात साफ कर देना चाहूंगी कि किसी भी रिश्ते की मर्यादा व्यक्ति स्वयं तय करता है | दो लोग आपस में एक दूसरे को किस तरह संबोधित करते हैं यह पूर्ण रूप से उनका व्यक्तिगत विषय होता है तुम मुझे "तुम" कह कर पुकारती हो, इसका मतलब यह नहीं है कि तुम मुझे प्यार नहीं करती या मेरी
वृंदा अपनी अम्मा को धैर्य से ध्यान पूर्वक सुनती रही फिर अपनी अम्मा के गले लगती हुई बोली-
"अम्मा मैं समझ गई हूं कि नारी सशक्तिकरण का अर्थ केवल पुरुषों का या हमारे रीति रिवाजों व संस्कारों का ही विरोध करना नहीं है |"
वृंदा से यह सब सुन उसकी अम्मा वृंदा का माथा चूमते हुए बोली-
" बेटा आज के आधुनिक युग में अवश्य हम सब यह समझ बैठे हैं कि पुरुषों को ग़लत सिद्ध करना, उनसे आगे बढ़ जाना या अपनी संस्कृति को दकियानूसी बताना ही नारी सशक्तिकरण व स्वतंत्रता है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है "
अभी यह सारी बातें चल ही रही थी कि वृंदा के पिताजी आ गए, यह देख उसकी अम्मा उन्हें पानी देने के लिए उठी तो वृंदा बोली-"अम्मा तुम बैठो मैं पिता जी के लिए पानी ले आती हूं |"
प्रेमलता यदु
बिलासपुर छत्तीसगढ़