हमेशा से कहा जाता रहा है साहित्य समाज का दर्पण है | अर्थात जो कुछ समाज में घटित हो रहा है वही साहित्य में प्रतिबिम्बित हो रहा है | लेकिन क्या वास्तव में यह बात सौ प्रतिशत सही है ? क्या साहित्य समाज को प्रभावित नहीं करता ? व्यवहारिक सत्य यही है कि साहित्य भी समाज को प्रभावित करता है | साहित्य हमें उस संस्कृति के सम्पर्क में भी ला देता है जिसके सम्पर्क में शायद ही वास्तविक जीवन में हम कभी आ पायें |
अब कुछ इसी तरह की बात फिल्मों और विभिन्न माध्यमों पर प्रसारित वेबसीरीज और अन्य प्रकार की सामग्रियों के बारे में कही जाने लगी है | विचारणीय बात यह है कि जितनी घटिया शब्दावली और गाली-गलोच की भाषा इनमे प्रयोग की जा रही है क्या वो हमारे समाज में पहले से ही व्याप्त थी ? और अगर थी भी तो क्या जिस तरह छोटे बच्चों तक के सामने इनमे अश्लील भाषा का प्रयोग होता है वैसे ही समाज में होता आ रहा था ? मेरे विचार से नहीं …….. बिलकुल नही | सच्चाई तो यह है कि मात्र अधिकाधिक धनार्जन के लिए ही इन वेबसीरीज आदि में अश्लीलता और गन्दगी परोसी जा रही है | यह गन्दगी समाज से इन सामग्रियों में नहीं आयी लेकिन इतना अवश्य है कि इनके माध्यम से कुछ लोगों के मस्तिष्क की गन्दगी सारे समाज में फैलायी जा रही है | सरकार को इन पर नियन्त्रण करना चाहिए | अच्छा साहित्य और अच्छे चलचित्र समाज को उपलब्ध कराये जायेंगें तो लोग देखेंगें ही | देखेंगें भी और उससे प्रभवित भी होंगें | साहित्यकार और फ़िल्मकार एक उत्तम समाज के सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं |
चलिए इस बसन्त में कुछ अच्छा सर्जित करते हैं |
जय कुमार
सम्पादक
कृष्ण पक्ष चतुथी, विक्रम सम्वत् २०८०