बना के पूरी दुनिया
सजा के सारी दुनिया
ग़रीबी का जीवन जीते हैं
ग़म के आंसू हम पीते हैं।
हम दुनिया के मजदूर हैं
हक़-अधिकारों से दूर हैं।
बहाकर ख़ून-पसीना
भूलाकर अपनी दुनिया
सारी चीजों को बनाते हैं
उनकी दुनिया हम सजाते हैं।
हम दुनिया के मजदूर हैं
हक़-अधिकारों से दूर हैं।
लगाकर अपनी ताक़त
बनाकर सारी दौलत
ताउम्र ग़रीब ही रहते हैं
हर ज़ुल्म को हम सहते हैं।
हम दुनिया के मजदूर हैं
हक़-अधिकारों से दूर हैं।
थामकर झंडा लाल
लगाकर सूर-व-ताल
सड़कों पे जब निकलते हैं
अपना हक़ हम छीनकर लेते हैं।
हम दुनिया के मजदूर हैं
मत समझो मज़बूर हैं।
बढ़ाकर अपना बल
बनाने बेहतर कल
इंकलाब का बिगुल बजाते हैं
मालिकों पर हम गाज गिराते हैं।
हम दुनिया के मजदूर हैं।
मत समझो मज़बूर हैं।
पढ़कर मई दिवस का पाठ
बनाकर अक्टूबर का गांठ
चलो एक धक्का और लगाते हैं।
कि मजदूरों का राज हम लाते हैं।
हम दुनिया के मजदूर हैं
मत समझो मज़बूर हैं।
एम.जेड.एफ कबीर