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जेल में है रत्ना

 

        अखबार पलटते पढ़ते नजर 'दहेज की वेदी पर एक और बलि'शीर्षक पर अटक गई। यों तो प्रतिदिन समाचार पत्रों में दहेज पीड़िताओं के समाचार छपते रहते हैं।जाने कितने लोग पढ़ते होंगे और कितने नहीं।मैं भी कोई खास महत्व नहीं देती , लेकिन डा. रत्ना का नाम देखकर चौंक उठी। कौन रत्ना गुप्ता -मैने समाचार को विस्तार से पढ़ा।पढकर जैसे जमीन पांव के नीचे से खिसक गई।डा.रत्ना गुप्ता ने अपनी बहू डा.निकिता को जहर देकर मारने की कोशिश की, क्योंकि बहू कम दहेज लाई थी।। समाचार लिखे जाने तक निकिता नर्सिंग होम में भर्ती थी।

        यानि अटैम्प टू मर्डर और दहेज की मांग -दो आरोप लगाकर गिरफ्तार कराया गया था और दो दिन इस बात को हो चुके थे।खबर पढ़कर तड़प उठी मैं।हाय! मैंने यह क्या पढ़ा?मेरी रत्ना जेल में ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती।पढ़ी लिखी डिग्री कालेज की प्रवक्ता बहू तथा स्वंय डा.रत्ना मेडिकल कालेज में गायनोजिस्ट हैं।बेटा अभी तीन साल पहले से चैकोस्वालिया यूनिवर्सिटी में इंग्लिश का हैंड आफ डिपार्टमेंट है। अच्छी भली आमदनी कोठी कार सभी कुछ तो है।पढ़ें लिखे सभ्य लोग ,फिर भला दहेज कांड और हत्या जैसे हथकंडे अपनाने की क्या जरूरत थी।

        हां इतना मुझे मालूम था कि पुत्र के विवाह के बाद रत्ना काफी बीमार रही थी और यूटरैक्स रिमूव कराना पड़ा था।तथा रीढ़ की हड्डी में भी प्राब्लम आ गई थी।विद आउट पे छुट्टियां लेनी पड़ी थीं, लेकिन अब तो सब ठीक ठाक था।दस साल पहले कार ऐक्सिडेंट में रत्ना के पति का देहांत हो गया था।तब भी स्वंय को मुश्किल से संभाल पाई थी।कच्ची गृहस्थी दोनों बच्चे अभी पढ़ रहे थे।तब लगा था कि गाड़ी चलते चलते किसी गहरे खड्ड में गिर गई है। एक्सीडेंट में उनके साथ साथ परिवार के अन्य लोग भी दुर्घटना ग्रस्त हो गये है।रत्ना तो जैसे गूंगी बहरी हो गई।जो भी आता सहानुभूति के दो शब्द उसकी झोली में डाल कर चल देता। व्यंग्य का कचरा आंगन में उड़ता रत्ना को आहत करता रहता। दूर दूर तक रत्ना को अपना कोई नजर न आया। बच्चों के भविष्य की दुहाई दे -देकर किसी प्रकार इस हादसे से उबार सकी थी। सहयोगी डाक्टर्स ने भी हिम्मत बंधाई थी।

        बेटी गरिमा को साफ्टवेयर इंजीनियर बनाया और इंजीनियर लड़के से विवाह किया।अकेली ही सारी जिम्मेदारीयां निभाती रही। ससुराल में था ही कौन?दो भाई एक की मृत्यु हो गई दूसरा छोटा भाई विदेश में जा बसा।बेटी गरिमा के विवाह में बतौर मेहमान आए थे लेकिन बिटिया को जरुर विदेशी तोहफों से लाद दिया था और वहीं चाचू चाचू कहती आगे पीछे घूमती रही।

         उन्हीं की शह पर प्रखर को भी विदेश जाने की धुन सवार हो गयी। अपने सुख में वह यह भी भूल गया कि अकेली मां किसके सहारे रहेगी। प्रखर के विवाह के बाद रत्ना की जिंदगी में ठहराव सा आ गया।जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया।अब किसके लिए क्या करना है। प्रखर तो अब लौटने से रहा। समय काटने के लिए कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही।घर में कब तक बंद रहा जा सकता है।वह तो भला हो मिसेज भार्गव का जिन्होंने यह रास्ता दिखाया। उन्होंने तो रत्ना को प्राइवेट प्रैक्टिस का भी सुझाव दिया लेकिन रत्ना ने हंसकर जबाव दिया-

       "इतने पैसों का क्या करुंगी मिसेज भार्गव। बहुत कमा लिया।अब अपने लिए भी जी लूं।"

       और उसने क्लब जॉइन कर लिया।शामें वहीं बीतने लगीं।बेटी की तरफ से बेफिक्र,पर अब तो बेटी बेटी दोनों के नाम के वारंट थे और उन्हें यथाशीघ्र गिरफ्तार कराने की मांग की गई थी।

        किससे बात करुं, कहां से समस्त जानकारी जुटाऊं कुछ भी समझ नही आ रहा था ।अपनी असहायता और सखी की विपत्ति पर रोने के अलावा कुछ नहीं बचा था।जब थोड़ी देर रो ली और दिल का गुब्बार निकल गया तब कहीं सोचने का मन बना।पर कहां?मन तो रत्ना के चारो ओर घूम रहा था ।जेल में कैसे रहती होगी। महिला कैदियों के साथ पुरुष कर्मचारी अक्सर अभद्र व्यवहार करते हैं।ऐसी बातें अखबार के माध्यम से पढ़ती रही हूं।खाना भी कितना खराब मिलता है। कैसे खाती होगी?क्या कपड़े भी जेल के पहनती होगी।उन पर कैदी संख्या पड़ी होगी।

        फिर ध्यान आया,मैं भी कितनी बेवकूफ हूं।क्या क्या सोचने लगी?अभी कोई जुर्म साबित नहीं हुआ है जो कैदी नंबर मिलेगा। लेकिन जेल के कपड़े और खाना? मुझे तो यह भी नहीं मालूम की उसे कहां रखा गया है।वह सारा दिन क्या करती होगी? किससे पूछूं , कैसे पता चलेगा?मेरी बुद्धि भी मारे घबराहट के कुंठित होने लगी।भूल ही गयी कि  बालसखी है ।मायके से ही पता कर लूं।

          स्मृति में छात्र जीवन की ढ़ेरों बातें घूमने लगीं।साथ साथ पढ़ना , खेलना,खाना,रुंठना,मनाना और बड़ी कक्षा में आने पर एक दूसरे से अधिक अंक लाने की होड़ में लायब्रेरी में बैठकर किताबें चाटना। जहां अन्य छात्राएं खूब गपशप करतीं, अपने लव अफेयर चटखारे लेकर सुनातीं,हम दोनों अपने आंख कान और दिमाग किताबों में घुसाए रहते।कक्षा में हमें सब किताबी कीड़े कहते। फिर भी मेधावी छात्रा का सम्मान हमें ही मिलता। अध्यापिकाएं भी प्रसन्न र हतीं।

         ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ते गए हमारे रास्ते अलग होते गए।इंटर के बाद हमने सी पी एम टी की परीक्षा दी।रत्ना उत्तीर्ण हुई और मैं अनुत्तीर्ण। मैंने बी एस सी में दाखिला ले लिया और रत्ना बाहर पढ़ने चली गई। मैंने भी बी एस सी के बाद बी एड किया और गृहस्थिन बन गई।रत्ना ने भी डाक्टर बनने के बाद अपने सहयोगी से प्रेम विवाह कर लिया।

        इन सबसे दोनों बालसखियों की मित्रता पर कोई असर नहीं पड़ा।जब भी मिलते बीते वक्त की जुगाली करते रहते।वह अपने मरीजों को भूल जाती और मैं अपने पारिवारिक दायित्वों को।यह बात हमारे पति भी जानते थे।इसलिए हमारी बातों में व्यवधान न डाल हमारे उत्तर दायित्व स्वंय संभाल लेते।

          ऐसे ही हंसी खुशी वक्त गुजरता रहा और हम उम्र की सीढ़ियां चढ़ते दादी नानी बन बैठे। जब भी मिलते एक दूसरे से पूछते दादी नानी बनकर कैसा लग रहा है।रत्ना उत्तर देती-"यार , मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी हो गई हूं। मेरे मन में तो कालिज का खिलंदड़ा पन अठखेलियां करता रहता है।"

      "हाल तो मेरा भी यही है रत्ना।जब बच्चे अम्माजी या नानी जी कहते हैं तो मैं सोचती हूं क्या थे और क्या हो गये।अभी तो मैं जवान हूं।"और दोनों ठठाकर हंस पड़ते।

        रत्ना मेरा चेहरा गौर से देखती और कहती -"अब झुर्रियां पड़ने लगीं हैं मैडम। इन्हें तुम ढक कर रखती हो।अब मुखौटा लगाना और बाल रंगने बंद करो और चुपचाप दादी नानी बनी रहो।"

      "हाय मेरी स्कीन कितनी कड़क है"-और मैं जोर से चिकोटी काट लेती।फोन पर भी हम दोनों ऐसे ही बातें करते।

        अपनी अंतरंग सहेली के परिवार में ऐसा क्या घुन लग गया कि उसे जेल तक ले पंहुचा।अब पूंछू भी किससे?बेटी गरिमा के भी वारंट है।वह भी अंडर ग्राउंड होगी।तभी ध्यान आया कि रत्ना के भाई से पूंछू।और फोन डायरेक्टरी से नंबर ढूंढ लिया। उन्हीं से जेल का पता ले मिलने जा पंहुची।

        दोनों गले मिलकर खूब रोईं।शिकायत की मैंने-"तूने मुझे इस लायक भी समझना बंद कर दिया है कि अपना सुख दुःख साझा कर सके। अकेली यहां तक पंहुच गई।कुछ तो बता।"

         "कुछ हुआ हो तो बताऊं?बहू बेटे की इगो की लड़ाई है।प्रखर अपना विदेश जाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता था और बहू अपनी परमानेंट नौकरी छोड़कर जाना नहीं चाहती थी।उसकि कहना था कि मैं तुम्हारे लिए अपनी सर्विस क्यों छोड़ू। तुम्ही मेरे लिए विदेशी आफर ठुकरा कर यहां आ जाओ।

       पिछले एक साल से मायके में रह रही है।पढी लिखी समझदार है।अपना भला बुरा समझती है।इतना तो मां बाप भी समझा सकते थे।प्रखर ने तो निकिता का वीजा भी बनवा लिया था।एक साल की अवैतनिक छुट्टी लेने को भी कहा था।अब नहीं जाना चाहती तो मैं क्या कर सकती हूं।इसी खीज में उन्होंने प्रखर पर दूसरी शादी का इल्ज़ाम लगाया है। दोनों की इगो में मैं ही मारी गई क्योंकि प्रखर मेरा बेटा है और मैं आसानी से उपलब्ध हूं।

         पता नहीं निकिता के मन में क्या है?जबकि आजकल की लड़कियां विदेश जाने के नाम पर फूली नहीं समाती।कई बार समझाना चाहा।जब भी बात करती उसका उत्तर होता-"मम्मीजी,आप हमारे बीच में न पड़ें तो अच्छा होगा".

       "क्या तुम दोनों मेरे कुछ नहीं लगते?क्या इसी ईगो की लड़ाई के लिए शादी की थी?यह तो तुम्हें शादी से पहले सोचना चाहिए था।तुम दोनों अलग-अलग रहते हो तो क्या मुझे दुःख नहीं होता?"

        "दुःख होता तो प्रखर को समझातीं। सोचने और समझौता करने का काम मेरा है सिर्फ इसलिए कि मैं पत्नी हूं।"

     वह मुझे भावनात्मक रुप से ब्लैक मेल करने की कोशिश करती।

      "प्रखर के विदेश जाने पर आप अकेलापन महसूस नहीं करतीं। यहां आपका है ही कौन?आप अकेली किसके सहारे रहेगी?"

       "तुम मेरी चिंता छोड़ो बहू।मैं तो जैसे तैसे अपना वक्त काट लूंगी। इतने समय से नौकरी की है।रिटायर हो कर ही निकलूंगी?"

      "मम्मीजी जब आपको अपनी नौकरी का इतना मोह है तो मुझे भी है।"

       "तुम्हारी नौकरी ज्यादा पुरानी नहीं है। तुम वहां भी कोशिश कर सकती हो।"

       "मम्मी जी आप जानबूझकर प्रखर कि पक्ष लेती हैं क्योंकि वह आपका बेटा है।"

       "निकिता, तुम इल्ज़ाम लगा रही हो।मैं तुम्हें समझाने का प्रयास कर रही हूं कि पति पत्नी को साथ साथ रहना चाहिए। तुम दोनों के बीच ईगो का सवाल नहीं आना चाहिए।"

         वह पैर पटकती उठ जाती और मुझे चुप रह जाना पड़ता। उसके पापा का भी यही कहना है।बेटी को समझाने की जगह वे उसका पक्ष लेते हैं और कहते हैं कि प्रखर को निकिता के साथ नहीं रहना था तो विवाह क्यों किया।

     "आप ऐसा क्यों समझते हैं?"

     "और क्या समझूं?लोग तो अपनी पत्नियों के लिए क्या क्या करते हैं।वह विदेश से लौटकर यहां नहीं आ सकता।उसके आने से आपको भी सहारा होगा।"

       "बात मेरे सहारे की नहीं उसके कैरियर की है।"

      " ......बनाता रहे अपना कैरियर।मैं भी बताउंगा उसे कि मैं क्या हूं?मेरी बेटी कि जीवन बर्बाद कर वह सुखी नहीं रह  सकता।"और वे मुझे धमकी देकर चले जाते। मैंने उनकी धमकी को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। हमेशा गीदड़ भभकी ही समझा।यदि अपनी सुरक्षा को लेकर एक पत्र एस एस पी के यहां लगा दिया होता तो ये दिन देखना न पड़ता।

        सुनकर दुःख हुआ मुझे कि किस प्रकार लोग कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं।लोग कैसे कैसे हथकंडे अपना कर बेकसूरों को फंसाते हैं।

      "क्या करुं मैं तेरे लिए जो तू बाहर आ सके?'

       "निकिता के पापा राजनीति में ऊंची पंहुच रखते हैं। सोचते हैं कि एक अकेली विधवा औरत उनका क्या

 बिगाड़ सकती है। उन्हीं की वजह से जमानत नहीं हो पा रही।अब तो शायद हाई कोर्ट से ही होगी।"

      "और प्रखर?"

       "हां ,इस कांड का पता उसे भी चल गया है। आना भी चाहता है पर क्या फायदा?आते ही अरेस्ट हो जाएगा। मैं ने ही मना कर दिया है।वह बाहर रहकर ही अपनी और मेरी जमानत का प्रयास करें।"

      "अच्छा मुझे बता मेरी कहां जरुरत है?"

      "अभी तेरी कहीं जरुरत नहीं है।वकील सब देख रहा है। मिलने आया था यहां मैंने उसे सब समझा दिया है।"   

      "वकील को कुछ देना हो?"

     "अभी नहीं जमानत के बाद। वकील साहब घर के ही आदमी है यानि देवरानी ‌नमिता के भाई।"

       आश्वस्त हुई सुनकर मिलकर। प्रतिदिन जेल जाती रही।कभी फल ,कभी नाश्ता -खाना लेकर। थोड़ी मैगजीन भी पकड़ा थीं जिससे खाली वक्त काट सके। मुझे देखकर रत्ना आंखें भर लाती"-कितना कष्ट दे रही हूं तुझे।"

       "तेरी यह दशा देखकर मुझे कष्ट होता है।ऐसी तो कभी कल्पना भी नहीं की थी।क्या अब ऐसा वक्त आ गया है कि बहू बेटे के झगड़े में सास को जेल जाना पड़ेगा।"

      "हां , मैंने तो सोचकर यही निष्कर्ष निकाला है कि विवाह के बाद बेटा बहू को अलग ही रहने दो।कम से कम उनके मनमुटाव की साक्षी तो नहीं बनना पड़ेगा।जेल जाना तो नहीं पड़ेगा।लोग तरह तरह की अटकलें लगाएंगे, अफवाहें फैलाएंगे।किस किस को उत्तर दूंगी?"

     "अभी क्या है।जब तू बाहर आएगी लोग तुझे ऐसे देखेंगे की तू ही कातिल है।सास की छवि इतनी खराब कर दी गई है एक मां बेटे का विवाह करते ही चुड़ैल बन जाती है। बहू को यातना देने लगती है।"

       "मैं भी क्या करुंगी कुछ समझ में नहीं आ रहा। अब क्या नौकरी कर पाऊंगी?स्टाफ के बीच तरह तरह की चर्चाएं होंगी।लोग जाने क्या क्या कह रहे होंगे?"रो पड़ी रत्ना।

        "अब तू सबकी चिंता छोड़ रत्ना।क्या और कैसे करना है ये सोच। यहां से छूटने के बाद तुझे अकेले नहीं रहने दूंगी।"

        जाने कितनी बातें जेल में होती रही। बीस दिन रिहाई में लग गए।आज रत्ना को साथ लेकर लौटी हूं।जमकर सोऊंगी और रत्ना योजना बनाती पूरी रात आंखों में काट लेगी क्योंकि उसकी यातनाओं का अभी अंत नहीं है।

        क्या बेटा बेटी उसके इतने दिन की मानसिक यंत्रणा का अनुमान भी लगा सकेंगे और अपमान की जिस अग्नि में वह झुलसी है उसका अंदाजा लगा सकेंगे। क्यों हर बार मां को ही सहना पड़ता है। रिश्तों के सलीब पर मां को ही क्यो टंगना पड़ता है?

        एक गंभीर सह्रदया ममतामयी सफल डाक्टर रत्ना पर कुछ ही दिनों में एक क्रूर सास का लेबिल लग गया।मरीज आश्चर्य करेंगे। सुनकर विश्वास नहीं होगा।वहीं डाक्टर रत्ना जो मरीजों की हमदर्द है ,जिसकी एक मुस्कान से आधा मर्ज दूर हो जाता है,जिसकी बोली में फूल झरते हैं। नहीं वे ऐसी कभी नहीं हो सकतीं। उन्हें फंसाया गया है।

        लेकिन इन सब बातों के अब क्या मायने हैं? कभी पढ़ी थी एक कहानी कि एक स्त्री ने एक दुकान से थोड़ा सा आटा मजबूरीवश चुरा लिया।वह अपने बच्चों को भूख से मरता नहीं देख सकती थी। मांगने पर किसी ने उसकी सहायता नहीं की ।उसे कहीं काम भी नहीं मिला।चोरी करते दुकानदार ने ही रंगेहाथों पकड़ लिया।उसकी खूब पिटाई की गई और कुछ दबंग लोगों ने पकड़कर उसके माथे पर चोरनी गुदवा दिया।वह औरत पूरे जीवन घूंघट लगाए रही।और रत्ना अपने लिए किस आड़ की व्यवस्था करेगी?केस के अंतिम निर्णय तक शहर छोड़कर भी नहीं जा सकती। तो फिर....

      आंखों से नींद कोसों दूर हो गयी है। दोनों सोने का बहाना किए छत्तीस का आंकड़ा बने पड़ी है।वह अपना भविष्य देख रही है और मैं उसका।

      दस साल लग गए फैसला होने में।रत्ना ने समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया। तारीखें पड़ती रही और अब वह मरीज देखकर दवाई की पर्ची लिखने की जगह वकील से कानूनी दांव पेच डिस्कस करती।ज्यादा डिप्रैश हो जाती तो रात को नींद की गोली ले लेती।बनना संवरना सब छूट गया।देखने में अस्सी साल  की वृद्धा सी लगती।जब भी मिलती मैं टोंकती-"स्वंय को संभाल रत्ना।तू स्वंय को दोषी क्यों समझती है।तू बिना किए अपराध की सजा पा रही है।"

       "यही तो दुःख है और दुःख का भार अब सहा नहीं जाता। प्रखर की तरफ देखती हूं तो दुःख और बढ़ जाता है।"-दो बूंद हथेली पर टपक पड़ी।

       मैंने उसका हाथ कसकर थाम लिया।देखा-प्रखर भी है।कैसा हो गया है।सारे बाल पक गए हैं। चेहरे पर एक अजीब सी उदासी या कहूं वीरानी सी छाई है। विदेश की नौकरी छोड़ दी है।रत्ना के साथ केस डिसकश करता रहता है।केस का निर्णय होने तक पुनर्विवाह के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।

       दोनों बच्चे झूठे आरोप प्रत्यारोपों के साथ कोर्ट में खड़े हैं।जिरह होती है।सवाल जबाव होते हैं।उस दिन केस का फैसला होना था।तलाक के तीन अक्षरों पर हस्ताक्षर होने और रत्ना के बाइज्जत बरी होने में दस साल लग गए। फैसले के बाद पुत्र प्रखर के साथ रत्ना एक तरफ बढ़ गई और निकिता अपने पापा के साथ दूसरी तरफ।

       कचहरी के मुख्य दरवाजे से दोनों साथ साथ बाहर निकले।पल भर को ठिठकी निकिता, फिर धीरे धीरे रत्ना प्रखर के पास आकर खड़ी हो गई। रत्ना की आंखें आग उगलना ही चाहतीं थीं कि निकिता बोली-"आई एम सॉरी प्रखर।"

इन दस सालों में जीवन की दिशा ही बदल गई।सब कुछ बिखर गया और आज ये लड़की कह रही है कि आई एम सॉरी।"सॉरी निकिता"कहकर प्रखर आगे बढ़ गया।ठगी सी खड़ी देखती रह गई रत्ना।क्या नियति अभी कुछ और दिखाना चाहती है।

        शायद देखना ही है। कुछ कदम चलकर निकिता गिर कर बेहोश हो गई।प्रखर के आगे बढ़ते कदम रुक गए। उसने निकिता को गोद में उठाया,गाड़ी में लिटाया और गाड़ी हवा से बातें करने लगी।भूल गया कि मां और मौसी भी साथ हैं।एकबारगी रत्ना को जेल की चहारदीवारी याद हो आई।लगा-वह बाइज्जत बरी नहीं हुई है,बल्कि आजीवन कारावास की सजा मिली है।वह जेल में सीखचों के पीछे सीमेंट की चबूतरे पर बैठी है और लोग उस पर हंस रहे हैं.....

 

सुधा गोयल

२९०-ए, कृष्णानगर,डा दत्ता लेन

 बुलंद शहर-२०३००१

उत्तर प्रदेश