हरे - हरे सखुए के पत्तल,
याद हैं मुझे,
खाई है जिसपर मैंने जलेबियाँ,
आते थे बनकर दूर के,
पहाड़ों में बसे गाँव से,
टूटी सड़कों और पगडंडियों,
को पार कर।
जेठ की मृगमरीचिका में,
देखा था,
सखुए का पत्ता चुनती,
स्त्रियों का झुंड,
पीठ पर सद्यः प्रसूता के,
महुए की मादकता में मस्त
बँधा था कृशकाय बच्चा।
नहीं गिना था उसने कभी,
अपने कपड़े की सिलवटें,
ना ही मापा था उसने,
अपने भोजन का प्रोटीन,
हर बरसात के पहले,
घर पहन लेता था ,
नए छप्परों का मुकुट।
मांग अच्छी होती थी,
इनकी बाजारों में,
कभी शादी तो कभी यज्ञ,
कभी नेताजी का चुनाव,
उसे मिलते थे बस चंद सिक्के,
आती थी जिससे,
दवाइयाँ और दूध।
लाभ तो तब भी,
बीच का आदमी ही उठाता था।
फिर खा रहा हूँ जलेबियाँ,
सुन्दर, रंग - बिरंगे, मखमली,
प्लास्टिक के पत्तलों पर,
पर नहीं दिखा चेहरा इसमें,
पत्तलवाली स्त्रियों का,
काश वो भी सीख लेती
बनाना नए पत्तल।
गौतम पाण्डेय
उच्चतर माध्यमिक शिक्षक
बिहार सरकार