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वक्त-वक्त की बात है

 


आदमी का गम नहीं बिकता,

आदमी की हँसी बिक जाती है;

गम के खरीददार नहीं मिलते,

हँसी, हँसते-हँसते खरीदी जाती है।

 

खुशी के सौदागर बहुत है,

दुखों के व्यापारी कहीं नहीं मिलते;

खुशियों में सामिल होने वाले,

बूरे वक्त में अक्सर साथ नहीं चलते।

 

भीड़ लग जाती है पैसे वालों के यहाँ,

रिश्तेदार कहाँ-कहाँ से आ जाते है ?

मगर गरीब का बूझा चूल्हा जलाने,

जमाने के कोई रिश्तेदार नहीं आते है।

 

दुनिया के दस्तूर बड़े निराले है,

जैब भरी हो, तो पराये भी अपने है;

मगर, जैब जब फटी हो,

तो अपने भी पराये हो जाते है।

 

अच्छे वक्त का साथी अच्छे वक्त तक,

बूरे वक्त में काम नहीं आता है;

बूरे वक्त में साथ खड़ा जो भी,

सच्चा साथी वो ही कहलाता है।

 

अनिल कुमार केसरी

भारतीय राजस्थानी