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आ घर लौट चलें अब साधो

 जगह-जगह दागों वाला यह,

मलिन वसन बदलें अब साधो।

देख लिया दुनिया का मेला,

आ घर लौट चलें अब साधो।।

 

जीवन भर ही रहे खोजते,

मृग बनकर मरुथल में जल को।

प्यास कंठ की बुझा न पाए,

व्यर्थ हुआ पाया हर पल को।

छिन-छिन छले गए जीवन को,

कितना और छलें अब साधो?

देख लिया दुनिया का मेला,

आ घर लौट चलें अब साधो।।

 

श्रम का दीप समझकर अपनी,

काया को ही रहे गलाते।

पा जाएँगे लक्ष्य एक दिन,

रहे स्वयं को यह समझाते।

ख़त्म हुई बाती तो कैसे,

बनकर दिया जलें अब साधो?

देख लिया दुनिया का मेला,

आ घर लौट चलें अब साधो।।

 

सत्यव्रती थे तो फिर उसकी,

क़ीमत हमें चुकानी ही थी।

व्यवहारिकता की छुरियों पर,

निज गर्दन रखवानी ही थी।

स्वाभिमान रूपी भट्टी में,

किस आकार ढलें अब साधो?

देख लिया दुनिया का मेला,

आ घर लौट चलें अब साधो।।

बृज राज किशोर ‘राहगीर’

ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड

मेरठ (उ.प्र.)-250001