एक इंसान मर गया मुझमें,
जिसको जिंदा देखा था मैंने कभी;
कुछ भग्नावशेष बाकी बचे,
पाषाण ही पाषाण है मुझमें अभी;
लोगों ने नजरें बदली,
नजरिये बदल गये मेरे अपने सभी;
मैं भी अब पाषाण हूँ,
बाहर-भीतर, अन्तर् तक अभी;
अब इंसानी बूत है मुझमें,
जो पत्थर-सा बेजान नहीं था कभी;
जम गयी मेरी संवेदना,
मिट गये आदमी के संकेत सभी;
पाषाण बन गई आत्मा,
सचमुच आदमी था मैं भी कभी...।
अनिल कुमार केसरी
भारतीय राजस्थानी