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मरघट का नीम

 


सच

मैं रोया था

उस दिन

जब मैं रोपा गया

शमशान के एक कोने में

आवश्यकता जानकर

मैं मरते मरते कई बार जिया हूँ

जब, कोई मरा है ।

मुझे सूखता देखकर

तब मेरी जड़ों में डाला पानी

अपना कर्तव्य समझकर ।

मेरा अब तक का जीवन

सुनसान, एकाकी, उपेक्षित सा बीता

कोई नहीं आता मेरे पास

अपनी मर्जी से ।

जब कभी आदमियों का टोला

दिखाई देता आते हुए

मेरी तरफ

तब समझ आता

आज फिर कोई

विदा हुआ संसार से ।

आज सुनने को मिलेगी

जानकारी

गाँव की, शहर की,

धर्म और समाज की

आज लगेगा प्रत्येक जन

वीतरागी, ईश्वर के निकट,

मोह से विहीन

क्या स्थाई रहेंगे

उनके भाव ?

यहाँ से जाने के बाद

मैं नहीं जानता ।

पर मैं आज खुश हूँ

मैंने जाना है, मैंने देखा है

दुनिया के सत्य को

सुलगती लकड़ी को, पिघलती देह को,

धधकती आग को, बुझते अंगार को,

मैंने देखा है...

सुदर्शन देह को

बनते राख

मैंने देखा है, बिलखते इंसान को,

कुछ देर बाद मुस्कुराते हुए ।

आप बूझोगे, 'मैं कौन हूँ?,

मैं कोई तपस्वी या महात्मा नहीं,

पर इनसे कम भी नहीं,

मैं हूँ मरघट का नीम

     हाँ, मरघट का नीम ।।

               - व्यग्र पाण्डेय   

       गंगापुर सिटी, (राजस्थान )322201