मैंने अंतिम बार एक अनंतिम प्रश्न पुनः अपने अंतर, द्वंद्ववान अंतर से पूछा। क्या है इस अंतः चित से हाथों के द्वारा इन पन्नों पर उतरती यह गतिशीलता, जो श्लाघा को यत्र-तत्र कर 'शब्द ' सृजत करती हैं! इनका मूल्य होना चाहिए? कोई क्यों इसे पढ़ें?क्यों यह किसी पत्रिका या पन्नों के पुलिंदो में प्रकाशन का स्थान पाए? क्या मात्र लिख देना अथवा अंतर चेतना के बड़बड़ाने को स्वर से शब्द रूप दे देना ही सृजनशीलता है? क्या इस कार्य का कोई मूल्य है, द्रव्य में नहीं, पर्यावरण की प्रतिष्ठा के रूप मे! फिर मेरी सृजनात्मकता भले ही तुम्हारी परिभाषा में 'सृजनता 'न हो किंतु भाव तो है और भाव जो निश्चल व हृदयस्पर्शी हैं, यही तो संसार के सर्व प्रमुख सुगंधित पुष्प है।
'में'क्या हूँ? जब भी यह सोचता हूँ तो मुझे कलम और खाली पृष्ठ स्मरण हो आते हैं। यदि मेरा लेखन मर्मस्पर्शी है तो फिर इसे प्रकाशन मे स्थान क्यों नहीं? इमरती की टेबल पर मैंने जोर से मुक्का मारा तो मेरी अव्यवस्थित रचनाएं दहल उठी, शीघ्र ही मैंने स्वयं की व्यवस्था से खुद को पुनः परिचित कराया, फिर एक दृश्य मेरे नेत्रों पर छाने लगा - एक टूटी खटिया, हां पूरी तो नहीं टूटी पर पाएं तो चरमरा ही रहे है, और उस पर श्वास से द्वंद्व करती मां।
माँ, ओह, मेरी प्यारी माँ!, तुम्हें स्मरण है जब बालत्व मे तुम तालाब मे गारा खोदने जाती थी? तब में भी साथ चलता था तुम्हारे और पास बिखरी आर्द्र बालू से कई किले - महल बना देता, नाम भी देता ; माँ! यह हम दोनों का, यह अज्जी का, यह बाबा का। तुम केवल हँसती ही जाती थी, काश!में उस मुस्कान का मर्म समझता कि ऐसे मिट्टी की तरह धन नहीं बटोर सकते बच्चा। मैंने पुनः जोर से हाथ इस बार भीत पर मारा, उसकी जर्जरता दहल गई। मैं इतना विवश क्यों हो? मेरी अंतर्वद्ना क्यों मुझे इतना द्वंदवान बना रही है? इसी द्वंद्व से उभरने के लिए मैं बाहर विभंग आंगन में आया, ओह! जिस मोगरे पर कल पुष्पों की बहार थी वह तो आज मग्न माटी है! कितने कलुषित और मैले जान पड़ते हैं, कहां गयी उनकी वह उज्जवल, धवल, श्वेत शोभा!
मुझे पुनः स्मरण हो आया, माँ, ओह मेरी प्यारी माँ! तुम्हें याद है यह सामने लहराते हरश्रृंगार, मालती और चंपा, जिसके पातो मे पुष्प छिपे हैं। क्यों छिपे हैं? शायद यहां का हमारा मलिन पर्यावास इन्हे रुचिकर न लगाओ और.......खैर, तो याद हैं तुम्हे इन्हे तुम लायी थी व लाकर कर मुझे सौंप दिए और कहा कि आँगन मे चौभ दो। उस समय मैं नहीं समझा कि तुम मुझे सृजनता की ओर अग्रसर कर रही हो, पर संभव है प्रत्यक्षतः तो तुमे भी इसका भान न रहा होगा। काश! मां तुम मुझे रोक लेती कि सृजनता सृष्ठा का कर्म है अथवा धनिको का,क्योंकि
माँ, ओह,मेरी प्यारी माँ! अब तुम यूं निस्तेज, निप्राणों की भांति इस काष्ठ के आयात पर बिखरे केवल शून्य क्यों तकती हो ?, तुम मौन हो, हाँ समझा!, तुम्हे इस अंतः सुप्तता से उभरने के लिए औषधि चाहिए; पर लाऊं कहाँ से, कैसे तथा किससे?कितना उत्तम होता यदि सृष्टि मे मात्र वात्सल्य और प्रेम ही औषधि होती, सुख ही जीवन और हीनता अथवा स्वार्थ जैसे प्रपंच ही 'मृत्यु'।यह तो सांसारिक सुखनंदी पर्यावास की अवधारणा हैं, यदि ऐसा होता तो सृजनता न होती, वेदना के गीत न होते और बिरह के भाव भी न होते। तो क्या हमें द्रव्य मूल्य का उपासक हो जाना चाहिए? नहीं, क्योंकि उपरोक्त भावो को तो यह भी नहीं बख्शता।
अम्मा, ओ! अम्मा?- मेरे अंतर से अनन्यास ही क्रन्दन और वेदना के सम्मिश्रण से बनी वाणी फूटी, पर तुम न बोली, मैं विचलित सा हो कोठरी में आया और तुम्हारे अंक से उठती धीमी गर्म श्वास को अनुभूत कर थोड़ा आश्वस्त हुआ। हाय!माँ तुम्हारे मैले आँचल और निस्तेज शरीर की दशा मुझ से न देखी जाती। क्या तुम इस शरीर से मुक्त होना चाहती हो?क्या मेरे प्रेम में भविष्य की चिंता ने तुम्हें इस कष्टप्रद देह मे बांध रखा है? ओ मां! मुझे कुछ दिखता है, इन नेत्रों में, तुम्हारी बरसों पुरानी छवि जब मैं बालपन में था तुम मुझे अंक में दबा और दीदी की अंगुली पकड़ राह में चलती थी। तुम्हारा सतरंगी सूत का आंचल और एक लम्बे घूँघट से बाहर आती तुम्हारे रूप की शोभा कितनी शांत और सुकोमल होती। तुम्हारे पैरों में सुहाग के नूपुरों की मंद स्वरीकाएं फूटती। तुम्हारे हाथों मे लाक्षा की खड़ताली ध्वनि और कईं स्वर्ण - रजत आभरण दादी ने तुम्हे दिए। यदि तुम्हें एक भी पहनना भूल जाती तो दादी का कृत्रिम क्रोध फूटता-'ऐ! री, तेरे बापू के राज मे तो न् देख्यो, अब जै यहाँ मिल रह्यो है तो महारानी से पहन्यो न् जाय। देखी अबकी सारे गहणा सुनार के गिरो रख आँव, तब राह जाती मोढ़िया (नववधूएं )निरखती रही।'
तुम हँस देती और दादी को कहती भी- अम्मा!,बापू कहां से पहिनाते? तभी तो तुम्हारे गले पाट गए।
दादी हँसकर कहती - रुक आज ही लल्ला का दूजा न्याता ( संबंध ) कराए देती हूँ।
आह! कितनी प्रसन्नता होती मुझे जब तुम दोनों का हास्य उस गारे के बड़े घर मे गूँजता और ग्रामभर आश्चर्य मे पड़ता कि यह सास - बहू क्यों न चूल्हा -चाकी, झाड़ू - बुहारी को लेकर क्यों नहीं लड़ती! एक दिन दादी चली गयी, कुछ दिन वह भी तो तुम्हारी ही तरह यूं शय्या पर सोइ रही थी, अंतः उस देह से,जिसमे बसने वाली आत्मा से तुम्हे ममतत्व का प्रेम मिलता, मुक्त हो गयी। तुम कितने दिन अकेले बैठे रोई थी - हाय! अम्मा, मेरो काईं होगो री......। तुम रोती रही पर वह वापस ना आयी।उसी के बाद तो तुम्हारे अंगों से मानो पीट - शुभ्र आभरणों का आवरण उसी प्रकार हटने लगा जैसे बसंत के बाद बनफूल वृक्ष से झरते हैं। बाबा ने मद्यांधता मे तुम्हारे उन ऐश्वर्य के प्रतीकों को बेच दिया, उसके बाद जमीन की बारी आई और अंततः उसी मद्य के लिए स्वयं को भी मृत्यु को बेच दिया, पर तुम तब इतनी तो ना रोई थी, ऐसा लगता था मानो तुमने शून्यता से शाश्वत संधि कर ली हो। आज भी तो तुम उसे शून्यता से संधि किए हो, उसी की ओर ताकती हो, मुझे तो देखती ही नहीं। मेरी चेतना पुनः वर्तमान में लौटी।
अम्मा, ओ अम्मा.....!मैंने धीरे से पुनः यत्न किया- अम्मा सुनती नहीं हो क्या? तुमने मानो श्वास पर भयंकर आघात किया, पुत्र का आव्हान सुन कौन अम्मा न बोलती हैं! जब नन्हा बछड़ा भूख से मचलकर अंबा -अंबा की गर्जना भरता है तो गौ चिल्लाती आती हैं - हम्मा - हम्मा।
हम्म....... तुम्हारे स्थिर ओठ से ध्वनि कम्पित हुई।
कैसा है जी... क्या पानी पिओगी? मैंने रुधे स्वर से कहा और तुमने धीरे से सिर हिलाया, हामी भर ली। पास पड़े लोटे से थोड़ा जल तुम्हारे ओठों पर लगा दिया, तुम थोड़ा ही गले तक उतार पाई कि श्वास ने प्रतिघात किया और तुम जोर जोर से खाँसने लगी, मैंने पास पड़े वस्त्र से तुम्हारे शुष्क अधर साफ किए, तुम्हारे धीर ने श्वास को पुनः अनवरत कर दिया।
माँ, ओ मेरी प्यारी माँ! दीदी नहीं आई, तुम्हारे नेत्र तो द्वार को ही तकते हैं, तुम मुझसे बार-बार पूछती हो किंतु काश! मुझे पता होता वह कब आएगी। मुझे स्मरण है अम्मा, और स्मरण हो जाता है जब बाहिर -शहर पढ़ाने को तुमने अपने गले की रजत 'हँसूली'स्वर्णकार को गिराउह रखी थी। वही तो दादी के एकमात्र पूंजी तुम संभाले रख पाई थी, मैंने तुमसे धन की मांग की, इस शर्त पर कि एक दिन तुम्हारी हँसूली को सोने से मढ़वा कर वापस लाऊंगा जब मैं अफसर बन जाऊंगा। महाविद्यालय जाकर मैंने स्वयं को अनुभूत किया और अपनी भावात्मकता को सृजनता की ओर मोड़ दिया, मेरा अफसरी का स्वप्न स्वप्न ही रह गया, यथार्थ तो केवल यह कलम और स्याही ही रह गया जीवन मे, और जब अध्ययन पूर्ण कर में आया तो मेरे हाथ में जीविका का प्रमाण पत्र न होकर खाली कागज थे जिन पर हर सृष्टि का मूल, सृजनता का मूल लिख देने की आकांक्षाएं अप्रत्यक्ष तो झलक ही रही थी। तुम मौन ही रही और मे भी किन्तु इस मौन को मे पन्नो पर लिखता गया। मुझे नहीं पता तुमने कहां से धन लाकर दीदी का ब्याह रचाया और पुनः जोर से बिलख कर उसे विदा कर दिया, उस दिन तुम क्यों रोई मुझे तब तो समझ में ना आया किंतु आज आता है, वही तो थी जिसके नूपुर - स्वर से इस निराश आवास में सुख की क्षणिक अनुभूति होती थी, आज
मानो मां के रोग पर दैवी प्रकोप हुआ, उसकी चेतना में प्राण पड़ गए। उसने दीदी के कोमल हाथ पकड़ लिए,कुछ न बोली बस अपने शुष्क अधरों से मुस्कुराने का यत्न करने लगी, पर वो फैल ही पाए,न हास्य का पुष्प पुष्पित हो सका न हीं पलवित। मां के नेत्रों के कोरों से अश्रु प्रवाह छलक गया।पता नहीं क्यों मैं और दीदी अम्मा की सोइ शांत देह से लिपट गए,न जाने कब तक वह हम दोनों के सर पर हाथ फेरती रही है, एकाएक मैंने और दीदी ने कुछ सुना- 'उठो, संध्या हुई जात है लल्ली, आंगन बुहार दो'।
हम दोनों कुछ क्षण जड़ हो गए,अंतर एकाएक कुतूहल सुख से भर गया। पांच दिनों में आज अम्मा की वाणी गूंजी,पर कहीं यह वही तीव्र प्रकाश तो नहीं जो दीप के बुझने से पहले पूरी शक्ति से आंगन को एकदा आलोकित कर शून्यता में लीन हो जाता है। काश!मेरे हाथ में पाषाण होता तो इस माथे पर कड़ा प्रहार करता,मैं क्यों ऐसा सोचता हूं,क्यों?
दीदी उठी और आंगन को उसी टूटी बुहारी( झाड़ू) से बुहारने लगी,हर ताक- कोने को अच्छे से जाड़ा और कई दिनों से जमी धूल घर से बाहर फेंकी। आंगन में देवस्थान पर कुछ पुष्प बिखेरे नन्हा दीपक जला दिया। कितने दिनों बाद यह घर,घर लगने लगा। अगर की सुगंध वातावरण में फैली और एक आत्मिक शांति अनिल संग बहने लगी,तभी आंगन में एक नन्ना बच्चा आया और हाथ में एक पोस्ट का ठप्पा लगा लिफाफा पकड़ा गया।जानता हूं डाकिये को यहाँ आना पसंद नहीं, क्यों ही आए,मेरा तो नित्य का ही था हर पत्रिका- पत्र से कोई सांत्वना पत्र आ ही जाता।दीदी ने प्रश्नात्मक कुतूहल दृष्टि से देखा। हाय! इन नेत्रों से मुझ पर उठने वाली आशाए क्यों नहीं मरती।पत्र पर दृष्टिपात किया तो नेत्रों में चमक आई कितने दिनों बाद मेरे अंतर ने मुस्कान एकाएक जतन किया,यह तो उसी पत्रिका का स्थान अंकित है जहां मैंने अंतिम रचना भेजी।यह युवाओं को एक नवपथ देने का दावा करती है, जरूर मेरी रचना प्रकाशित हुई होगी। आज इतने दिन बाद अम्मा का पुलकित हो बताऊंगा कि- देखो माँ!एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में मेरी रचना प्रकाशित हुई है। फिर साथ आया चेक उसके हाथ में थमा दूंगा, हाय माँ,मेरी प्यारी
दीदी अम्मा के पास कोठरी में गई, मैंने शीघ्रता से l पत्र निकाला और पूरे लिफाफे को जाड़ दिया,उसमें कोई चेक न था। मेरी अंतर वेदना जो इतने दिनों से द्वंद्व कर रही थी पाषाण हो गई। मैंने कांपते हाथों से पत्र खोला और अंतर की जिह्वा से पढ़ना शुरू किया-
प्रिय प्रेषक!
सादर प्रणाम,
आपकी रचना प्राप्त हुई जिसकी प्रशंसा शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। भावो का ऐसा चित्रण आजकल कौन वर्णित कर पाता है। अलंकारिक शब्द और एक प्रवाहमय रस ने आत्मविभोर किया, किंतु खेद है कि फिलहाल हम इसे प्रकाशित न कर पाएंगे।स्थाई स्तम्भों के अलावा के कई प्रसिद्ध रचनाकारों की रचनाएं इस बार हमें प्राप्त हुई जिन्हें प्रकाशित न करने की कोई वजह नहीं बचती। अंतः हम आपकी रचना ससम्मान लौटाते हैं किंतु भविष्य में यदि पत्रिका को ऐसी रचनाओं की आवश्यकता हुई तो हम आपसे सहर्ष संपर्क करेंगे।कृपया पत्रिका को यूं ही प्रेम देते रहें,
धन्यवाद।
ऐसा प्रतीत होता मेरे हाथों में मानो वह पत्र ना होकर मेरी अंतरात्मा के दमन हेतु दिया कोई दंड हो। किंतु अब मुझे किसी से कोई शिकायत न थी। न वेदना, न क्रंदन, न क्रोध न हीं आत्मग्लानि।मेरी आत्मा तो रोज ही माँ की दर्द से उठती कराह संग अंश -अंश मर रही थी, मैं जड़ - मौन खड़ा था कि एकाएक दीदी का स्वर कानों में गूंजा, उसमें वेदना का अंतिम सुनाई दिया -भैया,ओ भैया! देखो अम्मा बोलती ही नहीं, भैया, ओ भैया! अम्मा क्यों निश्चल सी हिलती है? भैया,ओ भैया!.........।
सुरेंद्र सिंह
अजमेर, राजस्थान