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नयी शिक्षा नीति के परिप्रेक्ष्य में भारतीय भाषाएँ

 

भाषा संवाद में जन्म लेती है। संवाद के बिना समाज भी नहीं बन सकता उसका काम ही चल सकता है। इसलिए समाज भाषा को जीवित रखने की व्यवस्था भी करता है। इस क्रम में भाषा का शिक्षा के साथ गहरा सरोकार बन जाता है। शिक्षा पाने के दौरान बच्चा भाषा भी सीखता है और भाषा के सहारे विभिन्न विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करता है। उसकी योग्यता, कौशल और मानसिकता के विकास पर उसके आस-पास फैली पसरी भाषा की दुनिया का बड़ा व्यापक असर पड़ता है। भाषा के सहारे ही सोचना होता है और हम जीवन का गुणा भाग लगाते हैं। रिश्ते नातों का बनना बिगड़ना, मन ही मन वर्तमान, अतीत और भविष्य की काल-यात्रा करना, निर्णय लेना और अपनी हालत समझना और दूसरों को समझाना आदि सारे कार्य भाषा में दक्षता आने पर ही हो पाते हैं। भाषा से मिलने वाली शक्ति को आत्मसात करते हुए उसके साथ अस्मिता भी जुड़ जाती है और यदि समाज में कई भाषाएं हों तो उनकी आपस में प्रतिद्वंद्विता होने लगती है और जो भाषा अधिक सक्षम होती है उसका आकर्षण उतना ही अधिक होता है। इस ढंग से कुछ भाषाएं दौड़ में आगे निकल जाती हैं और कुछ प्रयोग के अभाव में असहाय हो कर अस्त होने लगती हैं। अनुमान है कि दुनिया में बोली जाने वाली लगभग छह हजार भाषाओं में से इस सदी के अंत होते होते शायद 200 भाषाएं ही जीवित रहेंगी और शेष नष्ट हो जाएगी|

भारत की भाषाओं का भी इसमें बड़ा हिस्सा होगा खास तौर पर लिपि हीन भाषाओं पर संकट ज्यादा गहरा है। परंतु बड़ी जनसंख्या में प्रचलित भाषाओं की भी हालत विचारणीय है| भाषा की सत्ता का लोकतंत्र की व्यवस्था, राष्ट्र की कल्पना और सांस्कृतिक जीवन्तता से अभिन्न रिश्ता है। भाषाओं का जाना संस्कृति और सभ्यता के लिए भी खतरे की घंटी है। भाषा भावनात्मक, सौन्दर्य, सुरुचि और संस्कार का मार्ग प्रशस्त करती है। ज्ञान के निर्माण, प्रशासन, शिक्षा और अनुसंधान सबकी साधन होती है। उसकी भूमिकाओं के साथ भाषा की सापेक्षिक प्रतिष्ठा जुड़ी होती है। भाषा को गम्भीर कार्य सौंपने पर उसकी मांग बढ़ती है। भारत में आज अंग्रेजी का आकर्षण खूब बढ़ा है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल तेजी से बढ़ते रहे हैं। अंग्रेजी भाषा के प्रति मोह की मनोवृत्ति, अंग्रेजियत की जीवन शैली और संस्कृति के विस्मरण की प्रवृत्ति ने सभ्यता का संकट खड़ा कर दिया है। चूंकि भाषा का कौशल समाज में रहते हुए ही अर्जित होता है इसलिए उसके निर्माण में सामाजिक परिवेश की खास भूमिका होती है। बोलने वाले की भाषा और उसके संवादी की भाषा में संगति और तारतम्य भी जरूरी होता है। इसलिए नयी शिक्षा नीति की भाषा दृष्टि पर विचार करना जरूरी है।

शिक्षा नीति-2020 में भारतीय भाषाओं को लेकर जो विचार दिए गए हैं उनसे कुछ आशा बंधती है। यह संतोष की बात है कि यह नीति औपचारिक दुनिया में भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीनता और इस कारण उनके अस्तित्व पर रहे संकट को रेखांकित करती है। भाषा द्वारा व्यक्ति और समाज की चेतना के निर्माण के महत्व को देखते हुए यह नीति इस बात को स्वीकार करती है कि भाषा का सवाल केवल शिक्षण माध्यम और विषय तक ही सीमित नहीं है। इसके साथ शिक्षा के मूल सरोकार, राष्ट्रीय एकता, अवसरों की समानता, संस्कृति के पोषण और आर्थिक विकास के प्रश्न भी गुंथे हुए हैं। अतएव भाषा के बारे में फैंसला सिर्फ बहुमत के आधार या प्रयोग की सुलभता के आधार पर नहीं लिया जा सकता। उसमें विविधता और समावेशन का पूरा स्थान होना चाहिए। नई शिक्षा नीति में भाषा की उपस्थिति को भाषा-शिक्षण, शिक्षा के माध्यम के रूप में, भाषा को अध्ययन विषय के रूप में और भाषा के सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदना की दृष्टि से समझा जा सकता है। इस नीति के अनुसार भारतीय भाषाएं पूर्व विद्यालयी स्तर से लेकर शोध के स्तर तक औपचारिक शिक्षा का माध्यम बननी चाहिए। साथ ही भाषाओं को केवल उनके साहित्य तक सीमित रख इतिहास, कला, संस्कृति तथा विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने का माध्यम बनाया जाना चाहिए। इस तरह भाषा के समुचित प्रयोग द्वारा समाज को लोकतांत्रिक और समावेशी बनाया जा सकता है।

यह भी गौरतलब है कि प्राथमिक और स्कूली स्तर पर पाठ्यचर्या विकराल भौतिक और मानसिक बोझ का एक बड़ा कारण विद्यार्थी के लिए स्वीकृत विषयवस्तु और उसके गृह संदर्भ में प्रयुक्त भाषाओं के बीच विद्यमान अंतर है। भाषा का सम्बन्ध केवल साहित्य से है, इस धारणा को तोड़ कर उसकी अन्य क्षेत्रों में व्याप्ति को समझना जरूरी है। तभी अनुवाद और रटन की अध्ययन संस्कृति के स्थान पर मौलिक सृजन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सकेगा। आज की प्रचलित परिपाटी में कुछ विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाया जाना रूढ़ सा बना दिया गया है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी, चिकित्सा एवं विधि के विषय इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इस दिशा में भारतीय भाषाओं के माध्यम से पहल होनी चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है कि कला, शिल्प, खेल और देशज ज्ञान को अपनी भाषा के माध्यम से ही खोजा और संरक्षित किया जा सकता है। नीति का यह मानना है कि ज्ञान, विज्ञान और कौशल की दृष्टि से भाषाओं को रोजगार की दुनिया में स्थापित किया जाना चाहिए। नीति में प्राचीन भाषाओं के लिए आदरभाव विकसित करने और भाषा शिक्षकों की नियुक्ति को प्रोत्साहन देने का सुझाव स्वागत योग्य है। सूचना क्रान्ति को अंग्रेजी के प्रभाव से मुक्त करते हुए भारतीय भाषाओं के माध्यम को सार्थक बनाने हेतु भारतीय भाषाओं के शिक्षण को समर्थ बनाने के लिए विचार करना होगा। भारतीय भाषाएं इतनी समर्थ हैं कि इनके द्वारा ज्ञान का सृजन और स्थानान्तरण किया जा सकता है। साथ ही औपचारिक शिक्षा, अर्थव्यवस्था एवं अन्य सामाजिक-राजनीतिक कार्यों के लिए इसका प्रयोग सुगमतापूर्वक किया जा सकता है।

जहां तक पूर्व विद्यालयी शिक्षा का प्रश्न है मातृभाषा का प्रयोग करते हुए सोचने विचारने की प्रक्रिया का सूत्रपात करना ही सर्वथा हितकर होगा। बच्चे की भाषा सीखने की सहजात क्षमता का उपयोग करते हुए सीखने का सक्रिय परिवेश बनाया जा सकता है। बच्चों में पढ़ने की आदत विकसित करने के लिए चित्र वाली किताबों एवं अन्य भाषा शिक्षण सहायक सामग्री का विकास करना आवश्यक होगा। प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण को अनिवार्यत: लागू किया जाना ही श्रेयस्कर है। इस हेतु गणित, विज्ञान आदि विषयों में रोचक पुस्तकों की रचना एवं अन्य सामग्रियों की उपलब्धता को सुनिश्चित करना होगा। भारतीय भाषाओं में बालोपयोगी साहित्य के लिए राष्ट्रीय मिशन को संचालित कर युद्द स्तर पर यह कार्य करना होगा। नीति में तो उच्च शिक्षा तक को भारतीय भाषाओं के माध्यम से संचालित करने के अवसर का विस्तार करने की संस्तुति की है।

 यह बात सर्वविदित है कि चीनी, जापानी, फ़्रांसीसी, जर्मन, रूसी, हिब्रू आदि गैर अंग्रेजी भाषा माध्यम में उच्चतम स्तर की शिक्षा दी जा रही है और शोध किया जा रहा है। अत: भारतीय भाषाओं में भी उच्च स्तरीय शोध होना चाहिए। नई शिक्षा नीति कला, शिल्प, इतिहास, देशज विज्ञान और लोक विद्या को भी औपचारिक शिक्षा के दायरे में लाने को सोच रही है। इनमें प्रवेश के लिए अपनी भाषा ही उपयुक्त होगी। भारतीय भाषाओं को व्यावसायिक शिक्षा में यथोचित स्थान देते हुए रोजगार बाजार से जोड़ना होगा। आज सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषायी कौशलों का संवर्धन एक बड़ी चुनौती हो गर्ई है। आज की सबसे बड़ी सीमा है कि विद्यार्थी लिखित और मौखिक रूप में ठीक से संप्रेषित नहीं कर पाते हैं। अत: भाषायी दक्षता का संवर्धन जरूरी है। चूंकि सहज संज्ञानात्मक सक्रियता मातृभाषा में होती है अत: भारतीय भाषाओं में पाठ्य पुस्तक और अन्य पुस्तकों की उपलब्धता और उन्हें सतत अद्यतन करते रहना आवश्यक होगा। भारतीय भाषाओं में पारस्परिक संबंध विद्यमान है। कई क्षेत्रीय बोलियां जो लगभग भाषा जैसी है उनमें शब्दों, संज्ञाओं आदि की समानता का लाभ लेना होगा। अध्यापकों की नियुक्ति और प्रशिक्षण में उनकी भाषा संबंधी योग्यताओं में सुधार और परिष्कार जरूरी होगा।

भारतीय ज्ञान-परम्परा और संस्कृत, प्राकृत और फारसी का अध्ययन आज सक्रिय संरक्षण की अपेक्षा करता है। संस्कृत की जड़ों को जीवन्त रख कर ही समाज में चैतन्य लाया जा सकता है। इस दृष्टि से शरीर, मन और आत्मा इन सबका पोषण होना चाहिए। नई नीति में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में से अपनी रुचि के विषय पढ़ने का अवसर, माध्यमिक शिक्षा के अंतर्गत कौशल की अनिवार्य शिक्षा और आगे उच्च शिक्षा में प्रवेश और निर्गम की (एक/दो/तीन/चार वर्षों के विकल्प की) सहूलियत नि:संदेह आज के किशोर और युवा के लिए अधिक अवसर प्रदान करेगी। नई नीति में परीक्षा के स्वरूप, अवसर और संख्या को लेकर नई सोच है, जो विद्यार्थियों और अभिभावकों के लिए सुकून देने वाली है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र को लागू करने का प्रावधान किया गया है जो भारत की बहुभाषिकता की दृष्टि से उपयोगी है। इसे गंभीरता से लागू करने की आवश्यकता है। इससे हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं के विकास के लिए बल मिलेगा।

इसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा के लिए मातृभाषा की संस्तुति भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। बच्चों को घर की भाषा और विद्यालय की भाषा में निरंतरता से उनके सीखने का कार्य सुगम होगा तथा माता-पिता की रुचि और क्षमता का भी उचित लाभ मिल सकेगा। आज हिन्दी भाषी परिवार के बच्चे को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करना एक तरह के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तनाव को जन्म देता है। प्रस्तावित व्यवस्था से हिन्दी क्षेत्र के राज्यों में हिन्दी सीखने का अवसर बढ़ेगा। इसके लिए प्रभावी भाषा शिक्षण की व्यवस्था करनी होगी। अत: भाषा का उचित शिक्षण और संस्कार देना जरूरी है। इस समय भाषिक प्रौद्योगिकी का तीव्र विकास हो रहा है और भारतीय भाषाओं के लिए कंप्यूटर का उपयोग अत्यंत सरल हो गया है। अनुवाद की भी सुविधा बढ़ी है।

राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 में भाषा विकास हेतु सुझाव

भाषा, नि:संदेह, कला एवं संस्कृति से अटूट रूप से जुडी हुई है। विभिन्न भाषाएँ, दुनिया को भिन्न तरीके से देखती हैं इसलिए, मूल रूप से किसी भाषा को बोलने वाला व्यक्ति अपने अनुभवों को कैसे समझता है या उसे किस प्रकार ग्रहण करता है यह उस भाषा की संरचना से तय होता है। विशेष रूप से, किसी संस्कृति के लोगों का दूसरों के साथ बात करना जैसे परिवार के सदस्यों, प्राधिकार प्राप्त व्यक्तियों, समकक्षों, अपरिचित आदि भाषा से प्रभावित होता है तथा बातचीत के तौर-तरीकों को भी प्रभावित करती है। लहज़ा, अनुभवों की समझ और एक ही भाषा के व्यक्तियों की बातचीत में अपनापन, यह सभी संस्कृति का प्रतिबिम्ब और दस्तावेज़ हैं। अतः संस्कृति हमारी भाषाओं में समाहित है। साहित्य, नाटक, संगीत, फिल्म आदि के रूप में कला की पूरी तरह सराहना करना बिना भाषा के संभव नहीं है। संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिए हमें उस संस्कृति की भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन करना होगा।

दुर्भाग्य से, भारतीय भाषाओं को समुचित ध्यान और देखभाल नहीं मिल पाई है जिसके तहत देश ने विगत 50 वषों में ही 220 भाषाओं को खो दिया है। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं कोविलुप्तप्रायघोषित किया है। विभिन्न भाषाएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं विशेषत: वे भाषाएँ जिनकी लिपि नहीं है। जब किसी समुदाय या जनजाति के, उस भाषा को बोलने वाले वरिष्ठ सदस्य की मृत्यु होती है तो अक्सर वह भाषा भी उनके साथ समाप्त हो जाती है; और प्रायः इन समृद्ध भाषाओं/संस्कृति की अभिव्यक्तियों को संरक्षित या उन्हें रिकॉर्ड करने के लिए कोई ठोस कार्यवाही या उपाय नहीं किए जाते हैं। इसके अलावा, वे भारतीय भाषाएँ भी, जो आधिकारिक रूप से विलुप्तप्राय की सूची में नहीं हैं- जैसे आठवीं अनुसूची की 22 भाषाएँ वे भी कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना कर रही है। भारतीय भाषाओं के शिक्षण और अधिगम को स्कूल और उच्चतर शिक्षा के प्रत्येक स्तर के साथ एकीकृत करने की आवश्यकता है।

भाषाएँ प्रासंगिक और जीवंत बनी रहें इसके लिए इन भाषाओं में उच्चतर गुणवत्तापूर्ण अधिगम एवं प्रिंट सामग्री का सतत प्रवाह बने रहना चाहिएजिसमें पाठ्य पुस्तकें, अभ्यास पुस्तकें, वीडिओ, नाटक, कविताएँ, उपन्यास, पत्रिकाएं आदि शामिल हैं। भाषाओं के शब्दकोषों और शब्द भण्डार को आधिकारिक रूप से लगातार अद्यतन होते रहना चाहिए और उसका व्यापक प्रसार भी करना चाहिए ताकि समसामयिक मुद्दों और अवधारणाओं पर इन भाषाओं में चर्चा की जा सके। दुनियाभर के देशों द्वाराअंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, हिब्रू, कोरियाई, जापानी शब्द भाषाओं में इस प्रकार की अधिगम सामग्री, प्रिंट सामग्री बनाने और दुनिया की अन्य भाषाओं की महत्त्वपूर्ण सामग्री का अनुवाद किया जाता है तथा शब्द भंडार को लगातार अद्यतन किया जाता है। परंतु, अपनी भाषाओं को जीवंत और प्रासंगिक बनाए रखने में मदद के लिए ऐसी अधिगम सामग्री, प्रिंट सामग्री और शब्दकोष बनाने के मामले में भारत की गति काफ़ी धीमी रही है। इसके अतिरिक्त, कई उपाय करने के पश्चात् भी देश में भाषा सिखाने वाले कुशल शिक्षकों की अत्यधिक कमी रही है। भाषा शिक्षण में भी सुधार किया जाना चाहिए ताकि वह अनुभव-आधारित बने और उस भाषा में बातचीत और अन्तःक्रिया करने की क्षमता पर केन्द्रित हो कि केवल भाषा के साहित्य, शब्दभंडार और व्याकरण पर।

 भाषाओं को अधिक व्यापक रूप में बातचीत और शिक्षण-अधिगम के लिए प्रयोग में लिया जाना चाहिए। स्कूली बच्चों में भाषा, कला और संस्कृति को बढावा देने के लिए, कई पहलुओं की चर्चा की जा चुकी है जिसमेंसभी स्कूली स्तरों पर संगीत, कला और हस्तकौशल पर बल देना; बहुभाषिकता को प्रोत्साहित करने के लिए त्रिभाषा फार्मूला का जल्द क्रियान्वयन, साथ ही जब संभव हो मातृभाषा/स्थानीय भाषा में शिक्षण तथा अधिक अनुभव-आधारित भाषा शिक्षण; उत्कृष्ट् स्थानीय कलाकारों, लेखकों, हस्तकलाकारों एवं अन्य विशेषज्ञों को स्थानीय विशेषज्ञता के विभिन्न विषयों में विशिष्ट प्रशिक्षक के रूप में स्कूलों से जोडना; पाठ्यचर्या, मानविकी, विज्ञान, कला, हस्तकला और खेल में पारंपरिक भारतीय ज्ञान का समावेशन करना, जब भी ऐसा करना प्रासंगिक हो; पाठ्यचर्या में अधिक लचीलापन, विशेषकर माध्यमिक स्कूलों में और उच्चतर शिक्षा में, ताकि विद्यार्थी एक आदर्श संतुलन कायम रखते हुए अपने लिए कोर्स का चुनाव कर सकें जिससे वे स्वयं के सृजनात्मक, कलात्मक, सांस्कृतिक एवं अकादमिक आयामों का विकास कर सकें आदि शामिल है।

उच्चतर शिक्षा एवं उससे आगे की शिक्षा के साथ कदम से कदम मिलाते हए बाद में उल्लिखित प्रमुख पहलुओं को संभव बनाने के लिए आगे भी कई कदम उठाये जायेंगे। भारतीय भाषाओं, तुलनात्मक साहित्य, सृजनात्मक लेखन, कला, संगीत, दर्शनशास्त्र आदि के सशक्त विभागों एवं कार्यक्रमों को देश भर में शुरू किया जाएगा और उन्हें विकसित किया जाएगा, साथ ही इन विषयों में (दोहरी डिग्री चार वर्षीय बी. एड. सहित) डिग्री कोर्स विकसित किए जाएंगे। ये विभाग एवं कार्यक्रम, विशेष रूप से उच्चतर योग्यता के भाषा शिक्षकों के एक बडे कैडर को विकसित करने में मदद करेगा, साथ ही साथ कला, संगीत, दर्शनशास्त्र एवं लेखन के शिक्षकों को भी तैयार करेगा जिनकी देश भर में इस नीति को क्रियान्वित करने हेतु तुरंत आवश्यकता होगी। एन.आर.एफ. इन क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान हेतु वित्त मुहैय्या कराया जाएगा।

स्थानीय संगीत, कला, भाषाओं एवं हस्त-शिल्प को प्रोत्सहित करने के लिए तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि छात्र जहाँ अध्ययन कर रहे हों वे वहाँ की संस्कृति एवं स्थानीय ज्ञान को जान सकें, उत्कृष्ट् स्थानीय कलाकारों एवं हस्त-शिल्प में कुशल व्यक्तियों को अतिथि शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाएगा। प्रत्येक उच्चतर शिक्षण संस्थान, प्रत्येक स्कूल और स्कूल काम्प्लेक्स यह प्रयास करेगा कि कलाकार वहीं निवास करें जिससे कि छात्र कला, सृजनात्मकता तथा क्षेत्र/देश की समृद्धि को बेहतर रूप से जान सकें। अधिक उच्चतर शिक्षण संस्थानों तथा उच्चतर शिक्षा के और अधिक कार्यक्रमों में मातृभाषा/स्थानीय भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में उपयोग किया जाएगा और कार्यक्रमों को द्विभाषित रूप में चलाया जाएगा ताकि पहुँच और सकल नामांकन अनुपात दोनों में बढोत्तरी हो सके, इसके साथ ही सभी भारतीय भाषाओं की मजबूती, उपयोग एवं जीवन्तता को प्रोत्साहन मिल सके; मातृभाषा/स्थानीय भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने और कार्यक्रमों को द्विभाषित रूप में चलाने के लिए निजी प्रशिक्षण संस्थानों को भी प्रोत्साहित किया जाएगा एवं बढावा दिया जाएगा। चार वर्षीय बी.एड. दोहरी डिग्री कार्यक्रम को दो भाषाओं में चलाने से भी मदद मिलेगी, जैसे कि देश भर के विद्यालयों में विज्ञान को दो भाषाओं में पढाने वाले विज्ञान और गणित शिक्षकों के कैडर के प्रशिक्षण में। उच्चतर शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अनुवाद और विवेचना, कला और संग्रहालय प्रशासन, पुरातत्व, कलाकृति संरक्षण, ग्राफिक डिजाईन एवं वेब डिजाईन के उच्चतर गुणवत्तापूर्ण कार्यक्रम एवं डिग्रीयों का सृजन भी किया जाएगा। अपनी कला एवं संस्कृति को संरक्षित करने और बढावा देने के शिए विभिन्न भारतीय भाषाओं में उच्चतर गुणवत्ता वाली सामग्री विकसित करना, कलाकृतियों का संरक्षण करना, संग्रहालयों और विरासत या पर्यटन स्थलों को चलाने के लिए उच्चतर योग्यता प्राप्त व्यक्तियों का विकास करना जिससे पर्यटन उद्योग को भी काफी मजबूती मिल सके।

सन्दर्भ सूची-

1.    मानव संसाधन विकास मंत्रालय (2020) “राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020” मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार, पृ. 86-90

2.    मिश्र, गिरीश्वर (2020) “ शिक्षा का भाषिक परिप्रेक्ष्य” कंचनजंघा, वर्ष-01, अंक-02, जुलाई- दिसम्बर, पृ. 63- 68

3.    निरंजन कुमार (2021) “एनईपी 2020 के भाषाई प्रावधान और राष्ट्रहित: पुनर्विचार की आवश्यकता” अधिगम, अंक-18, मार्च-2021, पृ. 30-35

 

डॉ० दिनेश कुमार गुप्ता

प्रवक्ता, अग्रवाल महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय,

 गंगापुर सिटी, सवाई माधोपुर-322201

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