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विरह योग

 रूष्ट होते वचनों से          

केश खींचें निकाली गई            

विरह अग्नि में भस्म जली

अपमानित जन बांधी गई

 

कूट कूट मिथ्या ही लागे

अपमानित ऐसे की जाती

खेल खेल में दिल तोड़े

जैसे मोहरे बदली जाती

 

पत्नी धर्म निभाए चली

फरेब की सीमा में आती

छोड़ना जिसे छोड़ेगा हर पल

चिंगारी की ज्वाला भड़काती

 

गुनाह बस इतना करे              

दिल थामे उसे दे जाती

जो जीवन में रुका ही बैठा

चेष्टा उसकी आगे न जाती

 

आसान नहीं साथ निभाना

मुख बोले वचन न निभते

ऐसा तप साथ ही बनता

अकेले तन्हाई चली आती

 

कठिन राह में अकेले बढ़ी

न कोई हाथ थामे न जाने

लोगों की निंदा सुनती रही

कटाक्ष मेरी सोच में न आती

 

वक्त की सुइयां करे हूं पीछे

उन पलों की गुहार लगाती

असहाय देह में रूह पड़ी

एकल जीवन बैठ चलाती। 

 पूजा गौतम

दिल्ली